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________________ पीपिकानियुक्तिश्च अ० ५सू. २६ भरतवर्षस्य विष्कम्भबाहल्यनिरूपणम् wm कइ महाणईओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! चत्तारि महाण ईओ, पण्णत्ताओ, तंजागंगा-सिंध-रत्ता-रत्तवई, तत्थ णं एगमेगा महाणई चउद्दसहिं सलिलासहस्सेहि समन्या पुरथिमपच्चस्थिमेणं लबणसमुदं समप्पेइ-" इति । ___ जम्बूद्वीपे-भरतैरवतयोर्वर्षयोः कति महानद्यः प्रज्ञप्ताः-१ गौतम-! चतस्रो महनब्धः प्रज्ञताः, तद्यथा-गङ्गा-१ सिन्धु-२ रक्ता-३ रक्तवती-४ तत्र खलु । एकैका महानदी चतुर्दशभिः सलिलासहस्रैः समग्रा पूर्वपश्चिमं खलु लवणसमुद्रं समर्पयति ।। इति, ॥ २५ ॥ मूलसूत्रम्- "भरहवासस्स विक्खंभे पंचछव्वीसे जोयणसयाई छच्च एगृणवीसहभाया-"॥२६॥ छाया— भरतवर्षस्य विष्कम्भः पञ्चषविंशतिर्योजनशतानि षट्च एकोनविंशति भागा:-" ॥२६॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्व जम्बूद्वीपस्य भरतादिक्षेत्रेषु गङ्गादिमहानदीनां स्वरूपं प्रस्थापितम् सम्प्रति भरतक्षेत्रस्य विस्ताररूपवाहल्यं विष्कम्भापरपर्यायं प्ररूपयितुमाह-“भरहवासस्स विक्खंभे-" इत्यादि। भरतवर्षस्य भरतक्षेत्रस्य विष्कम्भो-विस्तारस्तावत् । योजनानां पञ्चशतानि पविशतिः षट्चैकोनविंशतिभागाः सन्ति तथाच-षविंशत्यधिकपञ्चशतयोजनानि षट्चैकोनविंशति भागः ५२६ , भरतक्षेत्रस्य विष्कम्भो वर्तते ॥२६॥ तत्त्वार्थनियुक्तिः-पूर्वसूत्रे-गङ्गा-सिन्ध्वादिमहानदीनां भरतादिक्षेत्रविभाजकहिमवदादिवर्षधरपर्वतादीनाञ्च स्वरूपं प्ररूपितम् सम्प्रति-भरतवर्षस्य विष्कम्भं प्ररूपयितुमाह-'भरत जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के छठे वक्षस्कार के सूत्र १२५ में कहा है-'जम्बूद्वीप के अन्दर भरतवर्ष और ऐरवत वर्ष में कितनी महानदियाँ कही गई हैं ? उत्तर-गौतम ! चार महानदियाँ कही गई हैं, इस प्रकार हैं- गंगा, सिन्धु, रक्ता और रक्तवती । इनमें से प्रत्येक महानदी चौदह हजार नदियों से युक्त होकर पूर्व और पश्चिम लवणसमुद्र में जा मिलती है ॥२५॥ सूत्रार्थ- 'भरहवासस्स' इत्यादि । सूत्र. २६ भरतवर्ष का विष्कंभ पाँच सौ छब्बीस योजन एवं एक योजन के उन्नीस भाग में से छह भाग ( ५२६६६) हैं ॥२६॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्र में जम्बूद्वीपके भरत आदि क्षेत्रोमें गंगा आदि जो महानदिवा प्रवाहित हो रही हैं, उनके स्वरूप का निरूपण किया गया । अब भरतक्षेत्र का विस्तार कहते हैं भरतक्षेत्र का विष्कंभ अर्थात् विस्तार पाँचसौ छब्बीस योजन और एक योजन का ६ भाग है ॥२६॥ तत्त्वार्थनिर्यक्ति इससे पहले के सूत्र में गंगा सिन्धु आदि महानदियों का तथा भरत आदि क्षेत्रों का विभाग करने वाले हिमवन्त आदि वर्षधर पर्वतों का स्वरूप बतलाया गया है।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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