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________________ दोपिकानियुक्तिश्च अ० ५ सू० १५ नारकाणां संक्लिष्टासुरैरुत्पादित दुःखनिरूपणम् ६०५ च, चतुर्थ्यादिपृथिवीषु पुनः परस्परोदीरणजनितानि क्षेत्रानुभावजनितानि चेति द्विविधान्येव भवन्तीति फलितम् । ___ "अथ किमर्थ ते खलु-अम्बाम्बरीषादयो नारकाणां तथाविधानि दुःखानि समुत्पादयन्ति इति चेत् ? अत्रोच्यते, तेषामसुराणां पापकर्माभिरतस्वभावत्वात् तथाविधो व्यापारो भवति । तथाच-यथा-ऽश्व महिषवराहमेषकुक्कुटवार्तकलावकादीन्-मुष्टिमल्लाश्च परस्परं युध्यमानान् दर्शदर्श तेषां रागद्वेषाभिभूताना मकुशलानुबन्धिपुण्यानां मनुष्याणामत्यन्तं प्रोतिरुपजायते, एव मेतेषामम्बरीषादीनामप्यसुराणां नारकान् पूर्वोक्तरीत्या तेषां-युद्ध-संलग्नानां तथाविधानि युद्धानि-तजन्य दुःखानिच कारयतां परस्परमभिन्नतश्चाऽवलोकयतां परा प्रीतिरुत्पद्यते । ते खल्वसुरा दुष्टमनोभावास्तथाविधान् तान् तान् दृष्ट्वाऽट्टहासं कुर्वन्ति महतश्च सिंहनादान् गर्जन्ति । तच्च खलु-तेषामम्बाऽम्बरीषादीनां सत्यपि देवत्वे-ऽन्येप्वपि च प्रीतिकारणेषु सत्सु मायानिमित्तमिध्यादर्शनशल्यतीवकषायो-योपहतस्य भावदोषालोचनारहितस्याऽप्रत्यकर्षस्या. ऽकुशलानुबन्धिपुण्यकर्मणो बालतपसश्च बालदोषाऽनुकर्षिणः फलम्। यस्मात्-सत्स्वप्यन्येषु प्रीतिकारणेषु तेषामशुभभावा एव प्रीतिहेतवो भवन्ति, ।। इससे यह भी फलित हुआ कि चौथी आदि आगे की पृथ्वियों में दो ही प्रकार के दुःख होते हैं। आपस में उत्पन्न किए हुए और क्षेत्र के स्वभाव से उत्पन्न होने वाले । प्रश्न हो सकता है कि वे अम्ब अम्बरीष आदि परमाधार्मिक देव नारकों को जो पूर्वोक्त वेदनाएँ उत्पन्न करते हैं, उसका कारण क्या है ? इसका समाधान यह है कि वे असुर स्वभाव से हो पाप कर्म में निरत होते हैं इसी कारण वे ऐसी प्रवृत्ति किया करते हैं। जैसे अश्वों, भैंसों, शूकरों, मेढों, मुर्गो, वत्तकों और लावक पक्षियों को तथा मल्लों को परस्पर लड़ते देख-देख कर राग-द्वेष से युक्त तथा पापानुवंधी पुण्य वाले मनुष्यों को अत्यन्त प्रसन्नता होती, है, उसी प्रकार अम्ब, अम्बरीष आदि असुर परस्पर युद्ध निरत नारकों को लड़ते देख कर उनके दुःखों को देख कर, आपस में एक दूसरे पर आघात करते देख कर अत्यन्त प्रसन्न होते हैं दुष्ट मनोभावना वाले वे असुर उन्हें उस अवस्था में देख कर अट्टहास करते हैं और बड़े जोर का सिंहनाद करते हैं। यद्यपि ये अम्ब और अम्बरीष आदि देव हैं और उनकी प्रसन्नता एवं सन्तुष्टि के अन्य अनेक साधन विद्यमान हैं, फिर भी मायानिमित्तक मिथ्यादर्शन शल्य एवं तीब्र कषाय के उदय से उपहत (पीड़ित), भावपूर्वक दोषों की आलोचना से रहित पापानुबंधी पुण्यकर्म बालतप का ही ऐसा फल है कि वे इस प्रकार के कृत्य करके और देख कर प्रसन्नता का लाभ करते हैं । प्रसन्नता प्राप्त करने के अन्यान्य साधन विद्यमान रहने पर भी अशुभ भाव हो उनकी प्रसन्नता के कारण होते हैं ? इस प्रकार अप्रीतिजनक, अत्यन्त तीव्र दुःख निरन्तर अनुभव करते हुए भी और मृत्यु
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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