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________________ दोपिकानियुक्तिश्च अ० ५ सू. १५ नारकाणां संक्लिष्टासुरैरुत्पादितदुःखनिरूपणम् ६०३ तत्त्वार्थनियुक्तिः-पूर्व तावत्-ते नारकाः पूर्वजन्मानुबद्धवैरानुस्मरणात् परस्परं दुःस्वमुत्पादयन्ति सततमितिप्रतिपादितम् , सम्प्रति वालुकाप्रभापृथिवीपर्यन्तं संक्लिष्टासुरा स्तेषां नाराकाणां दुःखानि समुत्पादयन्तीति प्रतिपादयितुमाह- 'तच्चं पुढविं जाव संकिलिट्ठासुरोदीरियदुक्खा य” इति । ___तृतीयां पृथिवीं यावत्-वालुकाप्रभा पृथिवीपर्यन्तम् संक्लिष्टासुरोदीरितदुःखाः-संक्लिष्टाः पूवर्भवसम्भाविता-ऽतितीव्रसंक्लेशपरिणामेन यदुपार्जितं पापकर्म तस्योदयात् सर्वथा क्लिष्टा:संक्लिष्टाः असुराः संक्लिष्टासुरा स्तैरुदीरितानि-उत्पादितानि दुःखानि येषां ते-संक्लिष्टा सुरोदीरितदुःखाः तथाविधाश्च नारका भवन्ति । चकारेण-तेषां नारकाणां नरकक्षेत्रानुभावजनितञ्च परस्परोत्पादितदुःख भवतीति ज्ञाप्यते । संक्लिष्टचित्ता असुराः पुन-रशुभानुबन्धिबालतपोऽकामनिर्जरोपार्जितदेवजन्मानः स्वल्पविभवसमृद्धिलब्ध्या ध्माताः सन्तो भवान्तरानवलोकिन एतावदेव त्रैलोक्यसुखमित्येव मन्यमानाः भवनपतीनां चतुर्विधनिकाये प्रथम एवा-ऽसुरनाम्म निकाये भवन्ति, नान्येषु देवनिकायेषु । ते नामो-त्कीर्तनेनापि रौद्रतया भयमुत्पादयन्ति, किमुत-दर्शनेन । तेच खलु-अम्बाः-१ अम्बरीषाः-२ श्यामाः-३ शबलाः-४ रुद्राः-५ उपरुद्राः-६ कालाः-७ महाकालाः-८ तत्त्वार्थनियुक्ति-पहले कहा जा चुका है कि नारक जोव पूर्वजन्म में बाँधे हुए वैर से युक्त होते है । उस वैर का स्मरण आते ही बे परस्पर में एक दूसरे को दुःख उत्पन्न करते हैं और परस्पर दुःख उत्पन्न करने का उनका सिलसिला सदैव चालू रहता है। अब यह बतलाते है कि वालुकाप्रभा पृथ्वी तक संक्लिष्ट असुर भी नारकों कों दुःख उत्पन्न करते हैं पूर्वभव में संभावित अति तीब्र संक्लेश परिणामों द्वारा उपार्जित पाप कर्म के उदय से पूरी तरह क्लिष्ट असुर तीसरी पृथ्वी तक अर्थात् वालुकाप्रभा पृथ्वी पर्यन्त नारक जीवों कों दुःख उत्पन्न करते हैं । 'च, शब्द के प्रयोग से यह सूचित किया गया है कि नारकों को नरकभूमियों के प्रभाव से परस्पर जनित दुःख भी होता है । उस परस्पर जनित दुःख के अतिरिक्त संक्लेश युक्त चित्त वाले असुरकुमार भी, जिन्हें अशुभानुबन्धी बालतप एवं अकामनिर्जरा के कारण देवगति मिल गई है और जो स्वल्प विभूति-समृद्धि की प्राप्ति हो जाने से गर्वयुक्त होते हैं, जो अगले भव की ओर आँखे उठा कर भी नहीं देखके अर्थात् भविष्य में हमारी क्या दशा होगीइस पर तनिक भी विचार नहीं करते जो अपने सुख को ही तीनों लोकों का सुख समझते हैं, और जो भवनपतियों के दस भेदों में से प्रथम भेद के अन्तर्गत हैं-किसी अन्य निकाय में नहीं होते, वे भी नारकों को दुःख उत्पन्न करते हैं । वे असुर भयानक होते हैं । उनका नाम हृदय में कॅप कॅपी पैदा कर देने वाला है; देखने की बात तो दूर ही रहो। उन असुरों के नाम ये हैं(१)अम्ब (२)अम्बरीष (३)श्याम (४)शबल (५)रुद्र (६)उपरुद्र (७)काल (८)महाकाल
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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