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________________ वोपिकानियुक्तिश्च अ० ५ सू. १३ नारकजीवस्वरूपनिरूपणम् ५९५ दशविधस्तावदशुभतरः पुद्गलपरिणामो नरकेषु तेषां भवति तत्र शब्दस्तावत्-तीक्ष्णपरुषनिष्ठुरपरिणामो नारकाणां भवति वर्णश्च–भयङ्करोगम्भीररोमाञ्चकारीत्रासातजनकः परमकृष्णो भवति, रसस्तु नरकस्थपुद्गलानां पिचु-मन्द-कोशातकी निर्याससदृशपरिणामो भवति । गन्धश्च--श्वान-मार्जार-शृगाल-गजाश्व-कुथितमृतकगन्धातिरेका-ऽशुभपरिणामो भवति स्पर्शःपुन-वृश्चिकदंश-कपिकच्छ-मुर्मुराङ्गारसदृशपरिणामः, संस्थानञ्च-नरक-नारकाकृतिरूपे दर्शनमात्रेणैवोद्वेगजनकं भवति पिशाचाकृतिवत् , पुद्गलानां भेदपरिणामोऽपि नरकेषु अशुभतरो भवति शरीरनरककुड्यादिभ्यो भिद्यमानाः पुद्गलाः स्पर्शवर्णादिभिरशुभपरिणतिमासादयन्तो दुःखजनका भवन्ति । . गतिश्च--नारकाणां खलु अप्रशस्तविहायोगतिनामकर्मोदयाद् अशुभतरा उष्ट्रपतङ्गादि वद् अशुभतरा भवति । बन्धनञ्च-पुद्गलानां शरीरादिषु संश्लिष्टानामशुभतरपरिणामात्मकं भवति, स्पर्श-वर्णादिभिरगुरु-लघुपरिणामोऽपि अशुभतर एव भवति, सर्वेषां खलु नारकीयजीवानां शरीराणि आत्मनो न गुरूणि भवन्ति नापि-लघूनि भवन्ति । इत्येव मगुरुलघुपरिणामोऽनेकविधदुःखाश्रयत्वादनिष्टतरो भवति । एवञ्च-नरकाअशुभ संस्थान (७) अशुभ भेद (८) अशुभ गति (९) अशुभ बन्धन और (१०) अशुभ अगुरुलघु परिणाम । नारकों का शब्द तीक्ष्ण, कठोर, और निष्ठुर परिणाम वाला होता है। उनका रूप भयंकर, गंभीर रोमांचजनक एवं त्रास तथा आतंक उत्पन्न करने वाला बहुत काला होता है। नरक के पुद्गलों का रस नीम तथा कटु कोशातकी (तुरई) के समान कटुक होता है । वहाँ के गन्ध का परिणमन मरे हुए और सडे हुए श्वान, मार्जार, शृगाल, गज और अश्व के शव से भी अधिक अशुभ होता है । स्पर्श ऐसा होता है जैसे बिच्छु के डंक, खाज, मुर्मुर (मूमर) या अंगार का हो, नरकों और नारकों की आकृति देखते ही घबराहट पैदा करती है जैसे पिशाच की आकृति हो, नरकों में पुद्गलों का भेद परिणाम भी अत्यन्त अशुभ होता है। शरीर और नरक की दीवाल आदि से भिन्न होने वाले पुद्गल स्पर्श वर्ण आदि की अपेक्षा अशुभ परिणति को प्राप्त होते हुए अत्यन्त दुःखजनक होते हैं । अप्रशस्त बिहायोगति नामकर्म के उदय से नारक जीवों की गति ऊँट और पतंग आदि की गति के समान अतीव अशुभ होती हैं । शरीर आदि से संबद्ध पुद्गलों का बन्धन भी अशुभतर ही होता है । स्पर्श वर्ण आदि से अगुरुलघु परिणमन भी अशुभतर ही होता है । सभी नारक जीवों के शरीर न गुरु होते हैं और न लघु होते हैं। इस प्रकार उनका अगुरुलघु परिणाम भी अनेक प्रकार के दुःखों का आश्रय होने के कारण बड़ा ही अनिष्ट होता है ।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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