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________________ ५४२ तत्वार्थाने त्रिंशदधिकत्रिशतोत्तरत्रिसहस्रग्रहाःसन्ति । यत्र यावन्तः सूर्यास्तत्र तावन्तश्चन्द्रा अपि बोध्याः ततः परं स्वयमूहनीयाः ॥२७॥ मूलसूत्रम् - "देवाणं उत्तरमुसरं आउप्पभाव-मुह ज्जुइलेस्साविमुद्धि-दियओहिविसया-अहिया, गइ-सरीरपरिग्गहा-भिमाणा हीणा----" ॥२८॥ छाया- "देवानामुत्तरोत्तरम् , आयुष्य-प्रभाव-सुखद्युतिलेश्याविशुद्धी-न्द्रियाऽवधिविषया अधिकाः, गति-शरीर-परिग्रहा-ऽभिमाना हीनाः--" ॥२८॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्व तावत्-चतुर्विधानामपि देवानां प्रवीचारेन्द्रादिस्वरूपनिरूपणं कृतम् , सम्प्रति तेषामेव भवनपत्यादिसर्वार्थसिद्धपर्यन्सानामायुष्य-प्रभाव-सुख-कान्तिलेश्याविशुद्धयादि विषयेषु यथाक्रममधिकत्वं-न्यूनत्वं च प्ररूपयितुमाह--"देवाणं उत्तरमुत्तरं" इत्यादि । वानव्यन्तरापेक्षया ज्योतिष्कस्य; स्तदपेक्षया भवनपते स्तदपेक्षया वैमानिकादेश्चायुः प्रभा वोऽनुभावः सुखं धुतिः लेश्याविशुद्धिं इन्द्रियाणां विषयः अपिच अवधिज्ञानविषयोऽधिकाधिको भवति किन्तु ऊर्ध्वदेवेषु गतिः अर्थाद्देशान्तरगमनं शरीरप्रमाणे परिग्रहमूर्छा अभिमानम् एतानि सर्वाणि उत्तरोत्तरतः अल्पानि भवन्ति ॥सूत्र २८॥ तत्त्वार्थनियुक्ति:-पूर्वं भवनपत्यादि सर्वार्थसिद्धपयेन्तानां सर्वेषां खलु देवानां यथायथं पुष्करार्ध द्वीप में बहत्तर सूर्य हैं, दो हजार सोलह नक्षत्र हैं और तीन हजार तीन सौ छत्तीस ग्रह हैं। जिस जगह जितने सूर्य हैं, उस जगह उतने ही चन्द्रमा भी समझ लेना चाहिए । उससे आगे स्वयं समझ लेना चाहिए ॥२७॥ सूत्रार्थ-- "देवाणं उत्तरं प्राउप्पभाव-सुह-ज्जुई' इत्यादि ।सत्र २८॥ देवों में उत्तरोत्तर आयु, प्रभाव, सुख, धुति, लेश्याविशुद्धि, इन्द्रियों का विषय और अवधि का विषय अधिक है । किन्तु गति, शरीर, परिग्रह और अभिमान कम है ॥२८॥ तत्त्वार्थदीपिका-पहले चारों निकायों के देवों के प्रवीचार का तथा इन्द्र आदि के स्वरूप का निरूपण किया गया । अब भवनपत्तियों से लेकर सर्वार्थसिद्ध तक के देवों के आयुष्य, प्रभाव, सुख, कान्ति, लेश्या विशुद्धि आदि के विषय में अधिकता और न्यूनता का प्ररूपण करने के लिए कहते हैं वानव्यंतरों की अपेक्षा ज्योतिष्कके, ज्योतिष्क को अपेक्षा भवनपतिके भवनपति की अपेक्षा वैमानिक आदि की आयु, प्रभाव, अनुभाव, सुख, द्युति (कान्ति) लेश्या विशुद्धि यथा योग्य शुद्धि, इन्द्रियों का विषय और अवधिज्ञान का विषय अधिक-अधिक है। किन्तु ऊपर के देवो में गति अर्थात् देशान्तर में गमन शरीर प्रमाण अर्थात् ऊँचाई परिग्रह मूर्छा और अभिमान, अहंकार-ये सब उत्तरोत्तर अल्प होते हैं |सूत्र २८॥ तत्त्वार्थनियुक्ति - पहले भवनपतियों से लेकर सर्वार्थसिद्ध पर्यन्त सभी देवों के यथा
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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