SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वीपिकानियुक्तिश्च अ० १ जीवस्य षड्भावनिरूपणम् ४७ प्रथमोपात्तस्यौदयिकभावस्य एकविंशतिभेदानाह–नारक-तैर्यग्योनमानुष्यदेवगतिभेदाच्चतुर्भेदा गतिः ४, क्रोध-मान-माया-लोभ-भेदाच्चतुर्भेदः कषायः ४ स्त्रीपुं नपुंसकभेदात् त्रिभेदं वेदलक्षणं लिङ्गम् ३ एकभेदा मिथ्यादर्शनरूपा मिथ्यादृष्टिः १, अज्ञानञ्चैकभेदम् १, अविरतत्वलक्षणमसंयतत्त्वमेकभेदम् १, असिद्धत्वञ्चैकभेदम् १, कृष्णनीलकापोततेजःपद्मशुक्लभेदात् षडूविधा लेश्याः ६ तत्र लिश्यन्ते सम्बध्यन्ते इति लेश्याः मनोयोगावष्टम्भजन्यपरिणामविशेषरूपा आत्मना सह लिश्यन्ते एकीभवन्ति इति लेश्याः ताश्च द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, द्रव्यलेश्याः भावलेश्याश्च, तत्र कृष्णादिवर्णमात्रं द्रव्यलेश्याः भावलेश्याः पुनः कृष्णादिवर्णद्रव्याष्टम्भजनिता परिणामकर्मबन्धनस्थितिविधायिन्यो भवन्ति चित्राथर्पितस्य वर्णस्येव श्लेषद्रव्यम् जतुलाक्षादिकम् तत्राविशुद्धोत्पन्न एव कृष्णवर्णस्तत्संबद्रव्यावष्टम्भादविशुद्धपरिणामविशेष उपजायमानः कृष्णलेश्येति उच्यते, तथा चोक्तम्"जल्लेस्साई दव्वाई आदि अंति तल्लेस्से परिणामे भवइ" इति प्रज्ञापनायां लेश्यापदे । एवं नीलवर्णद्रव्यावष्टम्भान्नीललेश्या, नीललोहितवर्णद्वययोगिद्रव्यावष्टम्भात् कापोतलेश्या, लोहितवर्णद्रव्यावष्टम्भात् तेजोलेश्या, पीतवर्णद्रव्यावष्टम्भात् पद्मलेश्या,शुक्लवर्णद्रव्यावष्टम्भात् शुक्ललेश्या भवतीति बोध्यम्-तत्रान्तिमास्तिस्रः क्रमश इष्टा इष्टतरा इष्टतमा आधास्तिस्रः क्रमशः अनिष्टतमा अनिष्टतरा अनिष्टा चेत्यवधेयम्, इत्येवं सर्वे मिलित्वा एकविंशतिभेदा औदयिकभावाः सन्ति, यद्यपि की गति-नरकगति, तिर्यचगति, मनुष्यगति और देवगति, (५-८) चारकषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ (९-११) तीन वेद-स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद (१२) मिथ्यादर्शनि (१३) अज्ञान (१४) अविरति-असंयमत्व (१५) असिद्धत्व (१६-२१) छह लेश्याएँ-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या । जो श्लिष्ट हों अर्थात् सम्बद्ध हों, उन्हें लेश्या कहते हैं । मनोयोग के निमित्त से उत्पन्न होने वाले परिणाम विशेष लेश्या कहलाते हैं । अथवा जो कर्म पुद्गल लिश्यन्ते अर्थात् आत्मा के साथ एकमेक हो जाएँ उन्हें लेश्या कहते हैं । लेश्या दो प्रकार की है-द्रव्यलेश्या और भाव-लेश्या । कृष्ण आदि वर्ण वाले द्रव्यविशेषको द्रव्यलेश्या कहते हैं और कृष्ण आदि द्रव्योंके निमित्तसे उत्पन्न होने वाला अध्यवसाय को भावलेश्या कहते हैं । यह भावलेश्या कर्मबन्ध का कारण होती है । ____ कृष्ण वर्ण वाले द्रव्य के निमित्त से जो अशुद्ध परिणाम विशेष उत्पन्न होता है, वह कृष्णलेश्या कहलाता है । 'जिस लेश्या वाले द्रव्यों को जीव ग्रहण करता है उसी लेश्या के अनुरूप उसके परिणाम होते हैं। ऐसा प्रज्ञापना सूत्र के लेश्यापद में कहा है। इसी प्रकार नील द्रव्य के निमित्त से नीललेश्या होती है । नील और रक्त दोनों वर्ण वाले द्रव्य के निमित्त से कपोतलेश्या, रक्त वर्ण वाले द्रव्य के निमित्त से तेजोलेश्या, पीत वर्ण वाले द्रव्य के निमित्त से पद्मलेश्या और शुक्ल वर्ण वाले द्रव्य के निमित्त से शुक्ललेश्या उत्पन्न होती है। वहां अन्तिम तीनों लेश्याएँ क्रमिक इष्ट, इष्टतर, इष्टतम होती हैं आदि की तीनों लेश्याएँ क्रमशः अनिष्टतम, अनिष्टतर, अनिष्ट होती है।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy