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________________ ५०६ तस्वार्थसूत्रे सूर्यग्रहान् विहाय शेषा नक्षत्रप्रकीर्णकतारकाश्च एकस्मिन् स्वस्व मार्गे चरन्ति ।तत्र-ताराग्रहाणा मनियतचारित्वात् चन्द्रसूर्याणामूवमधश्चरन्ति ।तथाच-सर्वेभ्यो ज्योतिष्के भ्योऽधस्तात् सूर्याश्चरन्ति, तत ऊर्ध्वं चन्द्राश्चरन्ति,तत ऊर्ध्व ग्रहाः, तत ऊवं नक्षत्राणि,तत ऊर्ध्वं विप्रकीर्णतारका श्चरन्ति । किन्तु-तागग्रहाणामनियतचारितया सूर्यादधस्तादपि सञ्चारों भवति. इत्येवं रीत्या खलु ज्योतिर्लोको दशाधिकयोजनशतविस्तारः , एकविंशत्यधिकैकादशयोजनशतैर्जम्बूद्वीपमेरुस्पर्शमकुर्वन् सर्वासु दिक्षु मण्डलाकारेण व्यवस्थितः। लोकान्तञ्चैकादशाधिकैकादशयोजनशतैरस्पृशन् सर्वतोऽ वसेयः । कुजादयस्ताराग्रहाश्चो-र्ध्वमस्तिर्यक्संचरणशीलत्वेनाऽनियतचारित्वाद् अधस्तात् ताव ल्लम्बमाना भवन्ति, यावत्-सूर्याद् दशयोजनेषूपलभ्यन्ते । - ज्योतिष्केषु तावत्-सर्वोपरि स्वातिनक्षत्रं नक्षत्रमण्डलस्य सर्वाधस्ताद भरणीनक्षत्रम् । सर्व दक्षिणतो मूलनक्षत्रम्, सर्वोत्तरतश्चाऽभिजित्नक्षत्रं बर्तते । ततो-ऽत्यन्तप्रकाशकारित्वाद् ज्योतिः शब्दनामधेयेषु विमानेषु भवा देवा ज्योतिष्का उच्यन्ते । सूर्य से कुछ योजन नीचे केतु का विमान है और चन्द्र से कुछ योजन नीचे राहु का विमान है । चन्द्र, सूर्य और ग्रहों के सिवाय शेष नक्षत्र और प्रकीर्णक तारे अपने अपने एक हो मार्ग में संचरण करते हैं । तारा और ग्रह अनियत रूप से चार करते हैं,अतः कभी चन्द्र और सूर्य से ऊपर और कभी नीचे चलते हैं । इस प्रकार सबसे नीचे सूर्य,सूर्य के ऊपर चन्द्रमा, चन्द्रमा से ऊपर ग्रह, ग्रहों के ऊपर नक्षत्र और नक्षत्रों के ऊपर प्रकीर्णक तारे चलते हैं । किन्तु तारा और ग्रह अनियत रूप से गति करने के कारण सूर्य से नीचे भी गति करते हैं । सम्पूर्ण ज्योतिर्लोक एकसौ दस योजन के विस्तार में है । ग्यारहसौ : एक्कीस योजनों में, जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत का स्पर्श न करते हुए, सभी दिशाओं में गोलाकार रूप से स्थित है । ग्यारहसौ ग्यारह योजन से स्पर्श न करता हुआ सभी ओर लोकान्त समझना चाहिए । .. मंगल आदि तारा, ग्रह, ऊपर, नोचे और तिर्छ चलते हैं, अतएव अनियत रूप से चलते हैं, इस कारण नीचे लम्बायमान होते हैं यावत् सूर्य से दस योजनों में पाये जाते हैं । ज्योतिष्कों में सबसे ऊपर स्वाति नक्षत्र है और नक्षत्रमंडल के सबसे नीचे भरणी नक्षत्र है। सबसे दक्षिण में मूलनक्षत्र है और सबसे उत्तर में अभिजित् नक्षत्र ।। अत्यन्त ही प्रकाश करने वाले होने के कारण ज्योति नामक विमानों में जो देव हैं, वे ज्योतिष्क कहलाते हैं । अथवा विमानों संबन्धी ज्योति के कारण वे देव ज्योतिष्क कहलाते हैं। वे देव क्रीडा नहीं करते, सिर्फ घोतित-प्रकाशमान होते हैं । अथवा यों कहा जा सकता है कि वे शरीर संबन्धी ज्योति के द्वारा घोतित होते हैं, क्यों कि उनका शरीर ज्योतिपुंज की भाँति चमचमाता हुआ देदीप्यमान होता है ।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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