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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० ४ सू. १९ विशेषतो ज्योतिष्कदेवनिरूपणम् ०५ तत्त्वार्थनियुक्तिः-पूर्व सामान्यतो भवनपतिवानन्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका चतुर्विधा देवाः प्ररूपिताः ततो विशेषतो भवनपतयो वानव्यन्तराश्च देवाः प्ररूपिताः सम्प्रति-क्रमप्राप्तान् ज्योतिष्कदेवान् विशेषतः प्ररूपयितुमाह “जोइसिया पंचविहा,चंदमरगहणक्खचताराभेदओ-"इति । ज्योतिष्काः-द्योतन्ते इति ज्योतीषि विमानानि, पृषोदरादित्वान्-दस्य जश्त्वे साधु, तेषु भवाः ज्योतिष्का देवाः ज्योतिस्त्ररूपा वा देवा ज्योतिष्काः मुकुटेषु शिरो मौलिमुकुटाश्रितैः प्रभामण्डलकल्पैरुज्ज्वलैश्चन्द्रसूर्यतारामण्डलैर्यथायथं चिहविराजमाना धुतिमन्तः खलु ज्योतिष्का देवाः पञ्चविधाः सन्ति ।। चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रताराभेदतः तत्र सर्वेषु ज्योतिष्केषु देवेषु चन्द्राणां प्रधानत्वप्रतिपादनार्थ प्रथमोपादानं कृतम् तत्र-समतलादस्माद् भूमिभागाचवृत्यधिकसप्तशतयोजनान्यूर्बमतिक्रम्य तावत्प्रथमो ज्योतिष्कताराविमानप्रस्तारो वर्तते, तदुपरि-दशयोजनान्यारुह्य सूर्यविमानप्रस्तारो विद्यते, तदुपरि-अशीतियोजनान्यतिक्रम्य चन्द्रविमानप्रस्तारो वर्तते, तदुपरि विंशतियोजनान्यारुह्य तारानक्षत्र बुध-शुक्र-वृहस्पति-कुजशनैश्चराणां विमानप्रस्तारो विद्यते । सूर्याधस्तात् किञ्चिदूनयोजने केतुर्वर्तते,चन्द्रादधोभागे किञ्चिदूनयोजने खल्ल राहुरस्ति,चन्द्र तत्वार्थनियुक्ति-महले. सामान्य रूप से भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक, इन आर प्रकार के देवों का निरूपण किया गया है तत्पश्चात् भक्नपति और वानव्यन्तर देवों के भेदों की प्ररूपणा की गई है। अब अनुक्रम से प्राप्त ज्योतिष्क देवों को विशेष रूप से प्ररूपणा करते हैं जो घोतित हो उसे ज्योति कहते हैं अर्थात् विमान । पृषोदरादि गण में पाठ होने से 'द' के स्थान पर 'ज' आदेश होसा है, अतः ज्योति' शब्द निष्पन्न होता है । उस ज्योति अर्थात् धिमान में जो उत्पन्न हों, वे ज्योसिष्क देव कहलाते हैं । अथवा जो देव ज्योतिस्वरूप हों वे ज्योतिष्क कहलाते हैं । ये ज्योतिष्क देव मस्तक पर मौलि-मुकुट धारण करते हैं, प्रभामण्डल के समान उज्वल चन्द्र, सूर्य और तारामण्डल के चिह्नों से यथायोग्य सुशोभित होते हैं, कान्तिमान् होते हैं। इनके पाँच प्रकार हैं (१) चन्द्र (२) सूर्य (३) ग्रह (४) नक्षत्र और (५) तारा ! इन ज्योतिष्क देवों में चन्द्र देवों की प्रधानता है, इस कारण उनका आदि में ग्रहण किया है। इस समतल भूमिभाग से सातसौ नब्बे योजन ऊपर सर्वप्रथम ताराविमानों का प्रस्तार है । उससे दस योजन ऊपर सूर्यविमान का प्रस्तार है । उससे अस्सी योजन को उँचाई पर चन्द्र विमान का प्रस्तार है । उससे बीस योजन तारा, नक्षत्र, बुध, शुक्र, वृहस्पति, मंगल और शनैश्चर के विमान प्रस्तार हैं ।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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