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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० ४ सू. १६ . देवमेदनिरूपणम् ४९५ देवाधिदेवाः भावदेवाश्च, इति । तत्र भव्यदेवस्तावत् पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिजो वा, मनुष्यो वा, बढे खलु देवायुषि अनन्तरागामिनि जन्मनि देवत्वेनोत्पत्स्यते, स खलु आगामिनी देववृत्तिमाश्रित्य देव इति व्यपदिश्यते तद्दलिकत्वाद् दारुच्छेदप्रज्ञापनवत् । __नरदेवाः पुनश्चक्रवर्तिनश्चतुर्दश रत्नाधिपतय उच्यन्ते, अन्यमनुष्यापेक्षया तेषामुत्कृष्टत्वात् । धर्मदेवास्तावत् श्रमणाः साधवो यथोक्तप्रवचनार्थानुष्ठातार उच्यन्ते तेषां सद्धर्मप्रधानतया व्यवहारवत्त्वात् देवाधिदेवास्तु-तीर्थकृनामकर्मोदयवर्तिनः कृतार्थाः अर्हन्तो व्यपदिश्यन्ते भव्यजीवानां सदुपदेशद्वाराऽनुग्राहकत्वात् शेषदेवानां पूजार्हत्वाच्च । भावदेवाः पुनर्भवनपतिवानव्यन्तरज्योतिष्क-वैमानिकाः देवगतिनामकर्मोदयवर्तिनो देवका उच्यन्ते, क्रीडाद्यतिशयवर्तित्वात् एवञ्च-देवानां पञ्चभेदत्वेन कथं तेषां चतुर्विधत्व मेबोक्त मिति चेत् ? उच्यते । भावदेवानामेव प्रकृते विवक्षितत्वेन चतुर्विधत्वं प्रतिपादितम् किञ्चा-ऽऽद्यानां चतुर्णा मनुष्यत्वेन किञ्चिदतिशयमङ्गीकृत्य तेषां देवत्वं प्रतिपादितम् । तस्माद्-भावदेवा श्चतुर्विधा एव सन्तीति बोध्यम् ।। (१) भव्यद्रव्यदेव-जिस पंचेन्द्रिय तिर्यंच या मनुष्य ने देवायु का बन्ध कर लिया है और जो अगले जन्म में देव के रूप में उत्पन्न होगा, वह आगामी देवपर्याय की अपेक्षा से भव्य द्रव्य देव कहलाता है । यह कथन लकड़ी काटने के उदाहरण से नैगमनय की अपेक्षा समझना चाहिए ! (२) नरदेव-चौदह रत्नों के अधिपति चक्रवर्ती नरदेव कहलाते हैं; क्योंकि अन्य मनुष्यों की अपेक्षा वे उत्कृष्ट होते हैं। (३) धर्मदेव-साधु धर्मदेव हैं, क्योंकि वे प्रवचन में प्रतिपादित अर्थ का अनुष्ठान करते हैं और उनके व्यवहार में समीचीन धर्म की प्रधानता होती है । (४) देवाधिदेव—जिनके तीर्थकर नामकर्म का उदय हैं, जो कृतार्थ हो चुके हैं और अर्हन्त हैं, वे देवाधिदेव कहलाते हैं; क्योंकि वे धर्मोपदेश के द्वारा भव्य जीवों पर अनुग्रह करते है और अन्य देवों के द्वारा भी पूजनीय होते हैं। (५) भावदेव-भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव, जिनके देवगतिनामकर्म का उदय है, भावदेव कहलाते हैं। क्योंकि वे अतिशय क्रीडा में निरत रहते हैं। इस प्रकार जब देव पाँच प्रकार के हैं तो आपने चार ही प्रकार के क्यों कहे ? इस प्रश्न का उत्तर यह है-यहाँ सिर्फ भावदेवों की हो विवक्षा की गई है, इसी कारण देवों के चार भेद कहे हैं, इसके अतिरिक्त पूर्वोक्त पाँच प्रकार के देवों में प्रारम्भ के तीन वास्तव में मनुष्य हैं । और भव्यद्रव्य देव मनुष्य या तिर्यञ्च है। कुछ विशेषताओं के कारण ही उन्हें देव कहा गया है। अतएव भावदेवों के भेद चार ही समझना चाहिए।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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