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________________ तस्वार्थसूत्र तत्र-भवनपतयो रत्नप्रभापृथिव्यामूर्ध्वमधश्च योजनसहस्रं विहाय जन्मसमासादयन्ति । वानव्यन्तराः पुनरस्या एव रत्नप्रभाया उपरि अधश्च परित्यक्तस्य योजनसहस्रस्यो--र्ध्वमधश्च योजनशतमेकैकमपहाय मध्येऽष्टसु योजनशतेषु जन्म प्रतिलभन्ते । ज्योतिष्कदेवास्तु समतलाद् भूभागात् नवत्यधिकसप्तयोजनशतानि आरुह्य दशाधिकशतयोजनविस्तारे आकाशदेशे लोकान्तात् किञ्चिन्यूने जन्म प्राप्नुवन्ति । वैमानिकाः पुनरस्मादप्यधीं रज्जुमधिरुह्य सौधर्मादिसवार्थसिद्धिविमानपर्यन्तेषु जन्मत उपपद्यन्ते तदेव-मुत्पादनिवासस्थानभेदाच्चतुर्विधास्ते देवा व्यपदिश्यन्ते ते खलु भवनपत्यादयो देवाः स्वस्थानेषूत्पन्नाः सन्तोऽन्यत्रापि लवणोदधिमन्दराचलभरतादिवर्षधरहिमवदादिपर्वततरुगहनप्रभृतिषु उक्तस्थानव्यतिरेकेणापि वसन्ति । केवलं तेषु जन्मना तेषामुत्पादो न भवतीति भावः ।। अथ भगवतीसूत्रे १२ शतके ९ उद्देशके ४६१.-सूत्रे----पञ्चविधा देवाः प्रतिपादिताः तथाहि -- कतिविहा णं भंते ! देवा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा देवा पण्णत्ता, तंजहा भवियदव्वदेवा नरदेवा धम्मदेवा देवाहिदेवा य भावदेवा य" कतिविधाः खलु भदन्त ! देवाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! पञ्चविधा देवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-भविकद्रव्यदेवाः, नरदेवाः, धर्मदेवाः भवनपतिदेव रत्नप्रभा पृथ्वोमें ऊपर और नीचे के एक एक हजार योजन क्षेत्र को छोड़ कर जन्म लेते हैं। वानव्यन्तर इसी रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर छोड़े हुए एक एक हजार योजन क्षेत्र में से ऊपर-नीचे एक-एक सौ योजन छोड़ कर बीच के आठ सौ योजनों में उत्पन्न होते हैं। ज्योतिष्क देव इस समतल भूमिभाग से सात सौ नब्बे योजन ऊपर से लगाकर एक सौ दस योजन में अर्थात् ७९० योजन की उँचाई से लेकर ९०० तक के ११० योजनों में उत्पन्न होते हैं। वैमानिकदेव ज्योतिष्क दोवों से डेढ रज्जु ऊपर सौधर्म देवलोक से लेकर सर्वार्थसिद्धि विमान पर्यन्त में वैमानिक देव जन्म ग्रहण करते हैं। इस प्रकार उत्पाद और निवास स्थान के भेद से देव चार प्रकार के कहे जाते हैं। भवनपति आदि देव अपने-अपने स्थानों में उत्पन्न होकर अन्यत्र लवणसमुद्र, मन्दराचल, हिमवान् पर्वत तथा तरुगहन आदि में भी, पूर्वोक्त स्थानों को छोड़ कर निवास करते हैं । हाँ, इन स्थानों में उनका जन्म नहीं होता । यहाँ शंका की जा सकती है कि भगवतीसूत्र के बारहवें शतक के नौवें उद्देशक में, पाँच प्रकार के देव कहे गये हैं। भगवतीसूत्र का वह कथन निम्नलिखित है प्रश्न-भगवान् ! देव कितने प्रकार के कहे हैं ? उत्तर-- --गौतम ! पाँच प्रकार के देव कहे गए हैं; यथा-(१) भव्यद्रव्यदेव (२) नरदेव (३) धर्मदेव (४) देवाधिदेव और (५) भावदेव ।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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