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________________ दीपिकानिथुक्तिश्च अ० ४ सू. १३ सर्वव्रतसामान्यभावनानिरूपणम् ४७१ नरकादौ चो-ऽमुत्र दारुणो म्ह पीपविपाको भवतोति भूयो भूयो भावयेदिति । तत्र प्राणिवधे तावत् घोरदुःख प्रदर्श्यते, हिंसनशीले हिंस्रो जनः सततमुद्वेजयिता संत्रासकारी भवति, स खलु-हिंस्रो भीषणवेषो ललाटचित्तकुटिलभूभङ्गो नितान्तेामर्षनिर्भरनेत्रदृढदन्तदष्टोष्टः प्राणिनां संत्रासजनको भवति, नित्यानुबद्धवैरश्च संजायते, एवञ्चे-हलोकेऽपि वंशदलकशादिभिस्ताडनं निगडशृखलादि भिर्बन्धनं विविधकाष्ठेष्टकारोपणादि परिक्लेशञ्च प्रतिलभते, प्रेत्यच नरकादिगति प्रतिप्राप्नोति लोके गर्हितो निन्दितश्च भवति, पूर्वजन्मोपार्जिताऽशुभकर्म विपाकोऽयं खलु “एतस्य मम पापिनो वराकस्ये" त्येवं सम्भावयतश्च विवेकबलात् 'प्राणिवधाद् व्युपरमः श्रेयान् इति तस्य दृढ़निश्चयः समुत्पद्यते इति भावः । एवम् हिंसादिना नारकतिर्यङ् मनुष्यदेबगतिरूपचतुर्गतिसंसारे भ्रमणम् नरकनिगोदादिषु अनन्तजन्म मरणादिकं घोरातिघोरं दुःखं प्राप्नुवन्ति । ___ अथ -हिंसको जनो यथा प्रत्यवायेन लिप्यते, एवम् असत्यवादो जनोऽपि प्रत्यवायभा हिंसा आदि पापों का आचरण करने वाले को प्रथम तो इसी लोक में अनेक प्रकार की मुसीबतें झेलनी पड़ती हैं और आगामी जन्मों में जाकर भयानक कष्ट सहने पड़ते हैं, इस प्रकार पुनः पुनः चिन्ता करना चाहिए । हिंसा करने से किस प्रकार घोर दुःख सहन करने पड़ते हैं, इसका दिग्दर्शन यहाँ कराया जाता है ___हिंसक जन सदैव त्रासदायक एवं भयंकर होता है । वह भयानक वेष धारण करता है, अपनी भौंहें ललाटपर चडा लेता है। उसके चित्त में ईर्ष्या और द्वेष का वास होता है । अतएव इसकी आकृति भीषण होती है । वह दांत पीसता है, होठ चबाता है और उसके नेत्रों से क्रूरता टपकती है। वह प्राणीयों के लिए बड़ा ही त्रास जनक होता है। सदैव बैर बाँधे रहता है उसे इसी जन्म में लाठियों से और कोड़ों से पीटा जाता है, हथकड़ियों और वेड़ियों से बाँधा जाता है और विविध प्रकार के काष्ठों एवं ईटों आदि का आरोपण करके कष्ट पहुँचाया जाता है । परलोक में उसे नरक आदि दुर्गति प्राप्त होती है । वह लोक में गर्हित और निन्दित होता है । उस समय उसे इस तथ्य का निश्चय होता है कि---मुझ पापी को पूर्व जन्ममें उपार्जित पापों का ही यह फल भोगना पड़ रहा है । इस प्रकार की भावना करता हुआ वह सोचता है कि हिंसा से विरत होना ही मेरे लिए श्रेयस्कर है। इसी प्रकार हिंसा आदि कुकृत्यों के आचार से नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति रूप संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है । नरक और निगोद आदि में अनन्तअनन्त जन्म-मरण करके घोर-अतिधोर दुःख सहन करने पड़ते हैं । जैसे हिंसक को अनेक अनर्थों का सामना करना पड़ता है। इसी प्रकार असत्यवादीजन भी दुःखों का भागी होता है । लोक में उसके वचन पर कोई विश्वास नहीं करता ।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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