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________________ - - सस्वार्थस्थे इहलोके परलोके च नरकादिजन्मनि घोरदुःखं, तद्विपाकान्नरकादिषु तीव्रयातनानुभवनं तद्भावयेत् ज्ञानपूर्वकक्रियानुष्ठानेन हिंसादिषु-ऐहिक, पारलौकिकनरकादिजन्माऽनर्थपरम्परां गर्हितनारकादितोब्रदुःखानुभवनञ्चोपलभमानो जीवः प्राणातिपातादिषु न प्रवर्तते इति भावः घोरदुःखमेव हिंसादिषु सर्वत्र भावयेत् , चतुर्गतिभ्रमणश्च-नरक-तिर्यङ्-मनुष्य–देवगतिरूपचतुर्गतिषु भ्रमणञ्च भवति हिंसादिनेति भावयेत् ॥ १३ ॥ तत्त्वार्थनियुक्तिः-पूर्व सर्वतो-देशतश्च हिंसा-ऽनृत-स्तेया--ब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिलक्षणेषु पञ्चमहाव्रता--ऽणुव्रतेषु प्रतिव्रतं पञ्च–पञ्चभावनाः तेषां दाढाथै प्ररूपिताः, सम्प्रति-सर्वव्रतसामान्यभावनाः प्ररूपयितुमाह- "हिंसादिसु उभयलोमे घोरदुहं, चउग्गइभमणं च-"इति हिंसादिषु-हिंसा-ऽसत्य-स्तेय-मैथुन परिग्रहेषु पञ्चसु वक्ष्यमाणा सर्वेषु तिष्ठतामुभयलोकेऽस्मिन् परलोके च नरकादौ घोरदुःखं तीव्रयातना, तद्विपाकजन्यतीव्रनारकादियातनानुभवनम् "मा भूयाद्" इति भावनया व्रतीजीवो हिंसादिषु कथञ्चिदपि न प्रवर्तते । तथाचेहैव तावद् हिंसादिषु प्रवृत्तस्य जनस्या-ऽमी प्रत्यवाया दरीदृश्यन्ते, प्राणातिपात. मृषावाद, स्तेय, अब्रह्मचर्य और परिग्रह, इन पांचों आस्रवों का सेवन करने से दोनों लोको में अर्थात् इस लोक में और नरक आदि परलोक में घोर दुःख भुगतना पड़ता है। इन आस्रवो के फलस्वरूप नरक आदि में तीव्र यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं, ऐसी भावना करनी चाहिए अर्थात वार-वार ऐसा विचार करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि जो जीव ज्ञानपूर्वक क्रिया का अनुष्ठान करता है और हिंसा आदि पापों के आचरण से इह-परलोक संबंधी अनर्थों के होने का चिन्तन करता है, नरक आदिमें होने वाले अत्यन्त तीब्र दुःखों का विचार करता है उसकी हिंसा आदि में प्रवृत्ति नहीं होती। इस कारण ऐसी भावना करनी चाहिए कि हिंसा आदि पापों में सर्वत्र दुःख ही दुःख है । इन पापों का सेवन करने वाले नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव-इन चारों गतियों में भ्रमण किया करते हैं ॥१३॥ तत्त्वार्थनियुक्ति -- इससे पूर्व पूर्णरूप से हिंसा आदि से विरतिरूप पाँच महाव्रतों और देशविरति रूप पाँच अणुव्रतों में से प्रत्येक की स्थिरता के लिए पाँच-पाँच भावनाओं का कथन किया गया है। अब ऐसी कतिपय भावनाओं का प्ररूपण किया जा रहा है जो सभी ब्रतों के लिए समान हैं हिंसा, असत्य चौर्य, मैथुन और परिग्रह, इन पाँच आस्रवों का सेवन करने वालों को इसी लोक में और नरक आदि परलोक में तीव्र दुःखों का अनुभव करना पड़ता है । हिंसा आदि के फलस्वरूप घोर यातनाएँ सहन करनी पडती है ! कहीं ऐसा न हो कि मुझे भी इन दुःखों को सहन करना पड़े । इस प्रकार वार-वार विचार करने वाला बती पुरुष हिंसा आदि में प्रवृत्ति नहीं करता ।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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