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________________ ४६० तस्वार्यसूत्रे स्थूलसूक्ष्ममेदात् , सङ्कल्पजारम्भमेदाद्वा द्विविधस्तावद् हिंसारूपः प्राणातिपातः सकलप्राणिगणविषयो भवति, तस्माच्च-प्राणातिपातात् न सर्वस्मात् प्राणिप्राणव्यपरोपणमात्राद् विरतिः । किन्तुएकदेशादेव सङ्कल्पजाद्वा स्थूलरूपात्प्राणातिपातानिवृत्तिः । एवम्-न सर्वस्माद् मृषावादान्निवृत्तिः, अपितु-एकदेशादेव कूटसाक्षीदानादिरूपम् नतु मर्मादिजन्यमृषावादात । एवम्—न सर्वस्मात् स्तेयाद् अदत्तादानरूपाद् विरतिः, अपितुएकदेशादेव हठहरणादिकाद् बलाहरणादिस्थूलरूपात् , यौहिकाऽऽमुष्मिकाश्चौर्यदोषाः राजदण्डकारागारनरकपातादिरूपाः गृहस्थानां भवति, तत्-स्तेय बलादाहरणादिकं स्थूलं बोध्यम् । सूक्ष्म स्तेयं तावत्-परिहासादिना परकीयवस्तुग्रहणरूपमवगन्तव्यम् । एवम्-स्थूलादेव एकदेशात् परदाराद् मैथुनाद् विरतिः स्वदारसन्तोषरूपा, न तु-सर्वस्माद् मैथुनात् स्वपरदाररूपान्निवृत्तिः, स्वदारमन्तुष्टः सन् तदन्ययोषितौ जननीवदनुपश्यति । एवम् परिग्रहो मूर्छा-गायं ममत्वम् , स च द्विविधः बाह्याभ्यन्तरभेदात् । तत्रान्तरेषु शरोरादिषु ममत्वरूपान्तरपरिग्रहः, बाह्येषु च-क्षेत्रवास्तुसुवर्णधनधान्यादिषु वस्तुषु स्नेहरूपो बाह्यपरिग्रहो बोध्यः । तत्र-बाह्यादेव स्थूलरूपात् क्षेत्रवास्तुहिरण्यादिवस्तुनो विरतिः, न तु-सर्वस्माद् हिंसा के दो भेद हैं । सम्पूर्ण प्राणातिपात से विरत न होना किन्तु एकदेश से ही विरत होना केवल स्थूल रूप संकल्पजा हिंसा का त्याग करना स्थूलप्राणातिपातविरति नामक अणुव्रत है। इसी प्रकार सब प्रकार के मृषावाद का त्याग न करके सिर्फ एकदेश से अर्थात झूठी साक्षी देने आदि रूप असत्यभाषण से निवृत्त होना स्थूलमृषावादविरति अणुव्रत है । इस अणुव्रत में स्थूल असत्य का ही त्याग किया जाता है, सूक्ष्म मृषावाद का नहीं । इसी प्रकार स्थूल अदत्तादान का त्याग करना अदत्तादानविरमण अणुव्रत कहलाता है । इस अणुव्रत में सभी प्रकार के अदत्तादान का त्याग नहीं होता, अपितु स्थूल अदत्तादान का ही त्याग किया जाता है। जिस अदत्तादान से इस लोक और परलोक में चोरी का दोष लगता है, जिसे सामान्यतया चोरी कहा जाता है और जो चोरी राज्य द्वारा दण्डनीय होती है, जिस कारण से कारागार और नरक का पात्र बनना पड़ता है, उसे स्थूल चोरी समझना चाहिए । हँसी मजाक में किसी को वस्तु ले लेना या छिपा देना स्कूल चोरो नहीं, सूक्ष्म चोरी है । गृहस्थों को ऐसी चोरी का त्याग नहीं होता। इसी प्रकार एक देश से मैथुन का त्याग करना ब्रह्मचर्याणुव्रत कहलाता है। एकदेश से मैथुन के त्याग का तात्पर्य है परस्त्रीसंयोग का त्याग करना । जो स्वस्त्री में सन्तुष्ट रहकर परस्त्री को माता के समान समझता है, वह स्वदार संतोष व्रती कहा जाता है । ___ परिग्रह का अर्थ है---मूर्छा, गृद्धि या ममत्व । परिग्रह के दो भेद हैं—बाह्य और आन्तरिक, आन्तरिक शरीर आदि पर ममता होना आन्तरिक परिग्रह है। क्षेत्र, वास्तु (महल
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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