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________________ ४५२ तस्यार्थसूत्रे रकं कर्माऽनेनेति विनयः, स चतुर्विधो बोध्यः, ज्ञान- दर्शन - चारित्रोपचारमेदात् । तत्र बहुमानादिर्ज्ञानविषयः, निःशङ्कनिराकाङ्क्षादिभेदो दर्शनविनयः, वक्ष्यमाणसमिति - गुप्तिप्रधानश्चारित्रविनयः, अभ्युत्थानाऽऽसनप्रदानाऽञ्जलिप्रग्रहादिभेदः पुनरुपचारविनय उच्यते, एवंविधविनयपरिणामपरिणतआत्मा विनयसम्पन्नो भवति तस्य भावो विनयसम्पन्नता, सा चापि - तीर्थकरनामकर्मणो हेतुः १० आवश्यकम् - एवमत्र - आवश्यकपदेना - SSवश्यक करणमुच्यते आवश्यकानां सामायिकादीनां भावतोऽनुष्ठानम् - उभयकालावश्यक करणमिति बोध्यम्, एतदपि खलु तीर्थकरनामकर्मबन्धस्य हेतुर्भवति, सामायिकशब्दार्थस्तु – समो - रागद्वेषराहित्यम्, तद्भावस्या -ऽऽयःप्राप्तिः समायो - ज्ञानादिलाभः स प्रयोजनमस्येति सामायिकम् सावद्य कर्मविरतिरूपं प्रतिक्रमणादिकम्, तदादिर्येषामावश्यकानां चतुर्विशति स्तवादीनाम् तानि सामायिकादीन्या - वश्यकानि अवश्यमहोरात्राऽभ्यन्तरे कर्तव्यतयाऽनुष्ठेयानि - आवश्यकानि तानि च सप्तदशविध संयमविषयव्यापाररूपत्वाद् विविधप्रकाराणि इच्छा - मिथ्या तथाकारादीनि भवन्ति तेषां भावतस्तदुपयोगानन्यत्वेनाऽनुष्ठानम् तस्मात् - सद्भावावहितचित्तस्याऽनुष्ठानकरणम् अन्यूनानतिरिक्ततया यथाविहितकालाऽऽसेवनं तीर्थकर नामकर्मबन्धस्य हेतुरिति भावः । ११ - (१) ज्ञानविनय ( २ ) दर्शन विनय (३) चारित्र विनय और (४) उपचार विनय । ज्ञान और ज्ञानी के प्रति बहुमान होना ज्ञानविनय है, निःशंक और निराकांक्ष आदि भेदोंवाला दर्शन विनय है, आगे कही जाने वाली समिति गुप्ति की प्रधानता वाला चारित्रविनय है, ऊठकर खड़ा हो जाना, आसन देना हाथ जोड़ना आदि उपचार विनय है । इस प्रकार के विनय रूप परिणाम वाला आत्मा विनय सम्पन्न कहलाता है । यह विनयसम्पन्नता भी तीर्थङ्कर नाम कर्म के बन्ध का कारण है । आवश्यक - यहां आवश्यक पद से आवश्यक क्रिया का करना समझना चाहिए | सामायिक आदि आवश्यकों का भावपूर्वक अनुष्ठान करना - प्रातः और सायंकाल आवश्यक क्रिया का आचरण करना । इससे भी तीर्थंकर नाम कर्म का बन्ध होता है । रागद्वेष की रहितता सम की प्राप्ति को 'समाय' कहते हैं समाय अर्थात् ज्ञान आदि का लाभ जिसका प्रयोजन हो वह सामायिक है । सावध कर्मों से विरत होना प्रतिक्रमण आदि हैं । 'आदि' शब्द से यहाँ चतुर्विंशतिस्तव वगैरह समझना चाहिए, जो दिन और रात्रि के अन्तिम समय में अवश्य करने योग्य हों वे आवश्यक हैं । ये आवश्यक सतरह प्रकार के संयम विषयक व्यापार रूप होने के कारण विविध प्रकार के हैं,, यथा - इच्छाकार, मिथ्याकार,, तथाकार आदि । इनका अनुष्ठान सद्भावपूर्वक करने से, यथाकाल विधिपूर्वक, न्यूनता एवं अधिकता आदि दोषों को बर्जित करके आचरण करने से तीर्थकर नाम कर्म का ध होता है ।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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