SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 458
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ ४ सू. ८ तीर्थकरत्वशुभनामकर्मबन्धनिरूपणम् ॥ "तंजहा-अरहंत-१ सिद्ध-२ पवणय-३ गुरु-४ थेर-५ बहुस्सुए-६ तबस्सीमु-७ वच्छल्लयाइ-८ तेसिं अभिक्खणं णाणोवओगे य-॥१॥ दंसण-९ विणए-१० आवस्सए य-११- सीलव्वए निरइयारं-१२ खणलव-१३ तव-१४ चियाए-१५ वेयावच्चे-१६ समाहीय-१७ ॥२॥ अप्पुव्वणाणगहणे-१८सुयभत्ती-१९ पवयणे पभावणया २० । एएहिं कारणेहिं तित्थयरत्तं लहइ जीवो ॥३॥ इति ॥ सू०-५॥ "अर्हत् सिद्धप्रवचन गुरुस्थविरबहुश्रुततपस्विषु । वत्सलता च तेषाम् अभीक्ष्णं ज्ञानोपयोगश्च ॥१॥ "दर्शनविनयावश्यकञ्च शीलव्रतनिरतिचारः। क्षणलवतपश्चर्या वैयावृत्त्यं समाधिश्च ॥२॥ "अपूर्वज्ञानग्रहणं श्रुतभक्तिः प्रवचनप्रभावना । एतैः कारण स्तीर्थकरत्वं लभते जीवः ॥ ३१ ॥ इति ॥ गाथात्रयेण संसूचितानि विंशतिस्थानकानि यथा-वत्सलता-अर्हत्-सिद्ध-प्रवचनगुरु-स्थविर–बहुश्रुततपस्विषु वत्सलता, भक्तिः-यथाऽवास्थतगुणग्रामोत्कीर्तनरूपा १-७ ज्ञानोपयोगः-एतेषामहदादीनामेव ज्ञानेऽभीक्ष्णं पुनःपुनरूपयोगः इत्यष्टस्थानानि दर्शनं-सम्यक्त्वं परमप्रकृष्टा दर्शनविशुद्धि स्तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणा, दर्शनं दृष्टिस्तत्त्वविषया रुचिः प्रीतिः जीवादिषु प्रत्ययावधारणरूपा, क्षायोपशमिकोपशमिकक्षायिकाणां सम्यग्दर्शनानां यथायोग्यं नानाप्रकारिकाशुद्धिविशुद्विस्तीर्थकरनामकर्मणो हेतुः । विनयः-विनयपदेन विनयसम्पन्नता गृह्यते, तत्र विनीयतेऽष्टप्रका (१) अरिहंत (२) सिद्ध (३) प्रवचन (४) गुरु (५) स्थविर (३) बहुश्रुत और (८) तपस्वी पर वत्सलता रखना उनके ज्ञान-प्रवचनमें उपयोग रखना (९) सम्यत्तव (१०) विनय (११) आवश्यक (१२) निरतिचार शीलों और व्रतों का पालन (१३) क्षणलब (१४) तप (१५) त्याग (१६) वैयावृत्य (१७) समाधि (१८) अपूर्वज्ञानग्रहण (१९) श्रुतभक्ति और प्रवचनप्रभावना; इन वीस कारणों से जीव तीर्थङ्करत्व प्राप्त करता है ॥१-३॥ ___ज्ञातासूत्र की इन तीन गाथाओं में वीस स्थानों का निर्देश किया गया है । इसके अनुसार (१-७) गहत्, सिद्ध प्रवचन, गुरु, स्थविर, बहुश्रुत और तपस्वी पर वात्सल्य होने से तथा इसकी भक्ति अर्थात् यथावस्थित गुणों का कीर्तन करने से (८) । . ज्ञानोपयोग-इसके ज्ञान-प्रवचनमें निरन्तर उपयोग लगाये रखना । ९ दर्शन अर्थात् अत्यन्त उत्कृष्ट दर्शनविशुद्धि-निरतिचार सम्यक्त्व की निर्मलता से-क्षयोपशमिक, क्षायिक अथवा औपशमिक सम्यग्दर्श की यथायोग्य उत्कृष्ट विशुद्धि होने से, (१०) विनयसम्पन्नता-से जिसके द्वारा आठ प्रकार के कर्म हटाये जाएँ वह विनय है । उसके चार भेद
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy