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________________ वोपिकानियुक्तिश्च अ० ४ सू. ६ देवायुष्यपुण्यबन्धहेतुनिरूपणम् ४४३ मूलसूत्रम्-“सरागसंजमाइएहिं देवाउए" ॥६॥ छाया--"सरागसंयमादिकैर्देवायुष्यम्" ॥ ६ ॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्रे मनुष्यायुष्यात्मक पुण्यकर्मबन्धहेतवः प्ररूपिताः सम्प्रति-देवायुष्यरूपपुण्यकर्मबन्धहेतून् प्ररूपयितुमाह-“सरागसंजमाइएहिं देवाउए" इति । सरागसंयमादिकैर्देवायुष्यं कर्म बध्यते, तत्र-सरागसंयमस्तावन् संज्वलनकषायरूपरागसहवर्तिनः सर्वतो हिंसादिविरतिलक्षणपञ्चमहाव्रतरूपः संयमः आदिपदेन-देशविरतिलक्षणाणुव्रतरूपः संयमासंयमः । परवशतया-ऽनुरोधाच्चाऽकुशलकर्मनिवृत्तिरूपाऽऽहारादिनिरोधरूपा-ऽकामनिर्जरा, बालस्या-ज्ञानिनस्तपो बालतपः, इत्येतेश्चतुर्भिहेतुभिर्देवायुष्यबन्धो भवतोति भावः ॥ ६ ॥ तत्त्वार्थनियुक्तिः -पूर्व तावदल्पारम्भा-ऽल्पपरिग्रहप्रकृतिभद्रत्वादयो मनुष्यायुष्यबन्धहेतुत्वेन प्ररूपिताः सम्प्रति-देवायुष्यबन्धस्य हेतुत्वेन सरागसंयमादोन् प्ररूपयितुमाह -“सरागसंजमाइएहिं देवाउए" इति । सरागसंयमादिभिः कारणभूतैर्देवायुष्यं कर्म बध्यते । __तत्र-सर्वतो हिंसाऽनृतस्तेयमैथुनपरिग्रहेभ्यः पापकर्मभ्यो विरतिलक्षणपञ्चमहाव्रतरूपः संज्वलनकषायात्मकरागसहवर्तिनः संयमः-सरागसंयमः । आदिपदेन-स्थूलप्राणातिपातादिनिवृ जो मनुष्य विविध प्रकार को शिक्षा के द्वारा सुव्रतों को धारण करते हैं, वे मनुष्ययोनि को प्राप्त करते हैं । सब प्राणियों को अपने-अपने कर्म के अनुसार फल की प्राप्ति होती है ॥५॥ सूत्रार्थ – 'सरागसंजमाइ' इत्यादि ॥सूत्र -६॥ सराग संयम आदि कारणों से देवायु का बन्ध होता है ॥६॥ तत्त्वार्थदीपिका- पूर्वसूत्र में मनुष्यायु कर्म के बन्ध के कारणों का कथन किया गया, अब देवायु रूप पुण्यकर्म के बन्ध के कारणों की प्ररूपणा करते हैं .. सरागसंयम आदि देवायु कर्म के बंध के कारण हैं। सरागसंयम प्राणातिपातविरमण आदि पाँच महाव्रत रूप संयम जब संज्वलन कषाय से युक्त होता है, तब वह सरागसंयम कहलाता है। आदि शब्द से अणुव्रत रूप देशविरति या संयमासंयम का ग्रहण करना चाहिए । तथा पराधीन होकर अथवा दूसरेके अनुरोध से अकुशल कृत्य से निवृत्त होने रूप अकामनिर्जरा एवं बालतप इन चार कारणों से देवायु का बन्ध होता है ॥६॥ तत्त्वार्थनियुक्ति --पहले बतलाया गया है कि अल्पारम्भ, अल्पपरिग्रह, स्वभाव की भद्रता आदि कारणों से मनुष्यायु का बन्ध होता है अब सरागसंयम आदि को देवायु के बन्ध का कारण कहते हैं-सरागसंयम आदि कारणों से देवायु का बन्ध होता है । हिंसा, असत्य, स्तेय, मैथुन और परिग्रह, इन पाँच पापों के पूर्ण रूप से विरत होना
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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