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________________ तत्वार्यसूत्रे विषयकाऽल्परागता, अल्पेच्छा वा । स्वभावमृदुता स्वाभाविकीभद्रता । स्वभावऋजुता नैसगिकीसरलता, सुखप्रज्ञापनीयत्वम् , वालुकाराजितुल्यरोषत्वम् स्वागतकरणाघभिलाषित्वम् , स्वभावमधुरत्वम् , लोकयात्राऽनुग्रहोदासीनता गुरुदेवताऽभिवन्दनाऽतिथिसंविभागशीलत्वम् , धर्मध्यानशीलत्वम् , मध्यमपरिणामत्वञ्च, इत्येतैःखलु-मनुष्यायुष्य कर्म बध्यते इति फलितम् । उक्तञ्च-औपपातिके-सूत्रे--"अप्पारंभा-अप्पपरिग्गहा-धम्मिया-धम्माणुया" इति। अल्पारम्भाः, अल्पपरिग्रहाः धार्मिका:-धर्मानुगाः-- इति । "स्थानाङ्गे ४-स्थाने ४-उद्देशके चोक्तम्- "चउहि ठाणेहि जीवा मणुस्साउयत्ताए कम्मं पगरेति, तं जहा-पगइभद्दयाए-पगइविणीययाए-साणुक्कोसयाए-अमच्छरिताए-" इति । चतुभिःस्थानीवा मनुष्यायुप्कताय कर्म प्रकुर्वन्ति, तद्यथा-प्रकृतिभद्रतया, प्रकृतिविनीततया, सानुक्रोशतया, अमत्सरितया, इति । एवम्-उत्तराध्ययने ७-अध्ययने २०-गाथायाञ्चोक्तम-.. वेमायाहि सिक्खाहिं जे नरा गिहि सुव्वया । उति माणुसं जोणि कम्मसच्चाहुपाणिणो ॥१ विमायाभिः शिक्षाभिः ये नरा गृहि सुव्रताः। उपयन्ति मानुषी योनि कर्मसत्याः हि प्राणिनः ॥१॥ इति ॥ ५ ॥ अमत्सरना ५, दयालुता ७, आदि भी इसी के अन्तर्गत हैं। इसी प्रकार स्वभाव से ऋजुता, सरलता होना या मन, वचन, काय की कुटिलता का त्याग करना आर्जव कहलाता है। पूर्वोक्त कथन का फलितार्थ इस प्रकार है-अल्प आरंभ करने से अर्थात् कम से कम हिंसाजनक प्रवृत्ति करने से, शब्द आदि विषयों में राग की अल्पता होने से, इच्छा की न्यूनता से, स्वाभाविक भद्रता से, स्वाभाविक सरलता से, सुख प्रज्ञापनीयता से, वालुका में खींची हुई लकीर के समान अल्प क्रोध होने से, स्वागत करने आदि की अभिलाषा से, स्वभाव की मधुरता होने से, उदासीन भाव के साथ लोकयात्रा का निर्वाह करने से, गुरु एवं देव को वन्दन करने से, अतिथिसंविभागशील होने से, धर्मध्यानशील होने से एवं मध्यम प्रकार के परिणामों को धारण करने से मनुष्यायुकर्म का बन्ध होता है । औपपातिकसूत्र में कहा है ____ अल्प आरम्भ वाले, अल्प परिग्रह वाले, धार्मिक तथा धर्मानुगामी जीव मनुष्यायु का बन्ध करते हैं।' स्थानांगसूत्र के चौथे स्थान, चौथे उद्देशक में कहा है—चार कारणों से जीव मनुष्यायु कर्म का उपार्जन करता है; वे चार कारण इस प्रकार है-(१) प्रकृति से भद्र होना (२) प्रकृति से विनीत होना (३) दयालु होना और (४) अमत्सरी होना । इसी प्रकार उत्तराध्ययन सूत्र के सातवें अध्ययन की २० वी गाथा में कहा है
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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