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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० ३ सू. २२ प्रदेशबन्धनिरूपणम् ४२७ सम्प्रति द्वितीयप्रश्नोत्तराशय उच्यते-- सर्वतः-सर्वासु खलु दशसु दिक्षु व्यवस्थितान् पुद्गलान् कर्मभावयोग्यान् आत्मो-पादत्ते । एवञ्च-तिर्यगष्टौ दिशः सन्ति ऊर्ध्वमधश्चकैका दिग् इत्येवं दशदिक्ष्ववस्थितान् पुद्गलस्कन्धान , गृह्णाति, नत्वेकदिक्प्रतिष्टान् । अथवा सर्वतः-सर्वैरात्मप्रदेशैरात्मा कर्मवर्गणायोग्यपुद्गलान् उपादत्त. एते चात्मप्रदेशाः संसारिणो जीवस्य केचन ऊर्ध्वम्-केचन पुनरधम्ताद् भवन्ति । वक्ष्यमाणसप्तमप्रश्नोत्तरस्य पुनरुक्ततादोषन्तु न सम्भवति, तस्य-"सर्वात्मप्रदेशेषु-" इत्यस्याऽनन्तानन्तप्रदेशेषु सम्बन्धार्थकत्वात् । –२ । सम्प्रति-तृतीयप्रश्नोत्तराशयः प्रतिपाद्यते सर्वजीवानां तुल्यः कर्मबन्धो न भवति, अपितुअतुल्यः खलु कर्मबन्धो बोध्य आत्मना काय-वाङ् मनोयोगविशेषात् कायस्य-वाचो-मनसश्च क्रिया चेष्टाऽनुष्ठानभाषणचिन्तादिरूपयाऽऽत्मनो योगः सम्बन्ध स्तद्विशेषात्-परिणतिवैचत्र्यात् तीब-तोत्रतर-तीव्रतममन्दादिरूपाद् अतुल्यं खलु कर्मबन्धनं भवति । ३ । आदि भिन्न-भिन्न रूप में परिणत कर लेता है। तात्पर्य यह है कि सामान्य कर्मपुद्गलों में ज्ञानावरण आदि जो अलग-अलग प्रकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, उसका कारण आत्मा का अध्यवसाय है । यह प्रथम प्रश्नोत्तर का आशय समझना चाहिए । दूसरे प्रश्नोत्तर का आशय यह है-- आत्मा समस्त अर्थात् दशों दिशाओं में स्थित पुद्"लों को जो कर्मरूपमें परिणत होने के योग्य हों, ग्रहण करता है । तिर्छि दिशाएँ आठ हैं-चार पूर्व आदि दिशाएँ, चार ईशान आदि विदिशाएँ; और ऊर्ध्व दिशा तथा अधोदिशा । इस प्रकार दशों दिशाओं में स्थित पुद्गलस्कंधों को आत्मा ग्रहण करता है; किसी एक दिशा में स्थित पुद्गलों को नहीं। अथवा आत्मा समस्त आत्मप्रदेशों से कर्मवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करता है। संसारी जीव के ये आत्मप्रदेश कोई ऊपर और कोई नीचे होते हैं। इस अर्थ में आगे कहे जाने वाले सातवें प्रश्नोत्तर से पुनरुक्ति नहीं है। वहाँ 'सर्वात्मप्रदेशेषु' का अर्थ 'अनन्तानन्तप्रदेशेसु' ऐसा अर्थ होता है । अब तीसरे प्रश्नोत्तर का आशय प्रकट करते हैं-सब जीवों को कर्मबन्ध समान नहीं होता बल्कि सब के कर्मबन्ध में असमानता होती है। इस का कारण है योग की विशेषता अर्थात् मन वचन और काय की चेष्टा-अनुष्ठान, भाषण और चिन्तन आदि की विचित्रता । सब जीवों के योग की प्रवृत्ति समान न होने से कर्मबन्ध भी समान नहीं होता है। किसी को तीव्र, किसी को तीव्रतर, किसी को तीव्रतम और किसी को मन्द, मन्दतर और मन्दतम बन्ध होता है।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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