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________________ तत्वार्थ सूत्रे औदारिकादिशरीरादियोगाः कर्मणो हेतुतामासादयन्ति, परम्परया - गत्यादयोऽपि तस्माद् नाम - कर्महेतुकानां पुद्गलानां बन्धो भवति । अथवा-- नामकर्मण उत्तरप्रकृतिभूतशरीरनामान्तर्गतबन्धननामप्रत्ययाः खलु पुद्गला बध्यन्ते, રક્ यस्य कर्मण उदयाद् गृहीत- गृह्यमाणपुद्गलानामन्यशरीर पुद्गलैः सह सम्बन्धो भवति, तत् कर्मबन्धननामपदेनोच्यते, काष्ठद्वयखण्डस्य संयोजने जतुवत् । अथवा – यादृशाः पुद्गलाः प्रदेशबन्धस्य हेतवो भवन्ति, ते पुद्गला ज्ञानावरण - दर्शनावरणा दिनाम्नैव प्रत्याय्यन्ते ज्ञानावरणादि नाम्ना तेषां पुद्गलानां स्वरूपमाख्यायते । यतोहि-ज्ञानावरणसमर्थानां दर्शनावरणादिसमर्थानामेव च पुद्गलानां बन्धनात् । अथैकाकाराणामेव पुद्गलानामात्मना - उपादीयमानतया कथं ते उपादीयमानाः एकाकाराः पुद्गला ज्ञानावरणादिविशिष्टतया - SSत्मप्रदेशेषु श्लिष्टा भवन्ति ? नहि ज्ञानावरणादिविशिष्टाः केचन पुद्गला बहिः सन्तीति चेदत्रोच्यते - ज्ञानावरणादि सर्वमूलप्रकृतिकर्मभाववर्गणायोग्यानां पुद्गलानां सामान्यतो गृहीतानामपि अध्यवसाय विशेषात् पृथक् पृथग्ज्ञानावरणादिभेदतयाऽऽत्मना परिणमनात् ते खलु पुद्गला ज्ञानावरणादितया परिणता भवन्तीति प्रथमप्रश्नोत्तराशयः है, न प्रत्यय कहलाते हैं । गति जाति आदि नाम कर्म - औदारिक शरीर आदि योग कर्म के कारण होते हैं और परम्परा से गति आदि भी कारण होते हैं, इस कारण नाम कर्म हेतुक पुद्गलों का बन्ध होता है । अथवा नामकर्म की उत्तरप्रकृति शरोर नाम कर्म के अन्तर्गत जो बन्धन नामकर्म है, उसके कारण पुदगलों का बन्ध होता है । जिस कर्म के उदय से पूर्वगृहीत शरीर के पुद्गलों का संबंध होता है, वह बन्धन नाम कर्म कहलाता है । यह कर्म काष्ठ के दो खंडों को जोड़ने वाली लाख के समान है । अथवा जिस प्रकार के पुद्गल प्रदेशबन्ध के कारण होते हैं, वे पुद्गल ज्ञानावरण दर्शनावरण आदि नाम से ही जाने जाते हैं । ज्ञानावरण आदि नामों से उन पुद्गलों के स्वरूप का कथन किया जाता है | क्योंकि ज्ञान के आवरण और दर्शन के आवरण आदि में समर्थ ही पुart का बन्ध होता है । प्रश्न - एक-से स्वरूप वाले पुद्गलों को आत्मा ग्रहण करता है, ऐसी स्थिति में वे पुगल ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि विशेष स्वरूपों में आत्मा के साथ किस प्रकार श्लिष्ट होते हैं ? अर्थात् जब कर्मपुद्गल मूलतः एक सरीखे हैं तो उनके स्वभाव में आत्मा के साथ वह होते ही कैसे अन्तर पड़ जाता है ? उत्तर - ज्ञानावरण आदि समस्त मूल और उत्तर प्रकृतियों के योग्य पुद्गल यद्यपि ग्रहण करने से पहले एक-से होते हैं, उनमें ज्ञानावरण आदि का भेद नहीं होता, फिर भी आत्मा अपने अध्यवसाय की विशेषता के कारण उन सामान्य पुद्गलों को भी ज्ञानावरण दर्शनावरण
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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