SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 390
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दोपिकानियुक्तिश्च अ० ३ सू० ९ मोहनीयकर्मण उत्तरकर्मनिरूपणम् ३८३ एवं मानोऽपि-अनन्तानुबन्धी-अप्रत्याख्यानकषायः-प्रत्याख्यान-संज्वलनकषायश्च तीव्रोमन्दो विमध्यो-मन्दश्च-भाव आत्मपरिणतिविशेषः क्रमशः शैलस्तम्भसदृशः अस्थिस्तम्भसदृशः तृणस्तम्भसदृशश्चावगन्तव्यः तत्र यथा-शैलस्तम्भस्तथाऽनन्तानुबन्धी मनोऽपि कुतश्चिन्निमित्तादुत्पन्नो मरणपर्यन्तं तिष्ठति, सजात्यन्तरानुबन्धी निरनुनयोऽप्रत्यवमर्शश्च शैलस्तम्भसदृशो भवति, तथाविधं मानमनुसृत्य मरणानन्तरं नरकेषू त्पद्यन्ते । एवं तावत् अस्थिस्तम्भसदृशादिष्वपि मानेषु उपर्युक्तनोधरी यैव यथायथं निगमनं विधातव्यम् एवं-मायाऽपि-अनन्तानुबन्ध्यप्रत्यख्यान-प्रत्याख्यानसंज्वलनकषायभेदाच्चतुर्विधा, तीवा-मध्याबिमध्या-मन्दाचा-ऽऽत्मपरिणतिविशेषभावरूपाक्रमशो वंशमूलसदृशी, मेषवृषाणसदृशी, गोमूत्रिकासदृशी, अवलेखनिका सदृशी, चाऽवगन्तब्या तत्र-यथावंशमूलमतिकुटिलमुपायसहस्रेणापि सरलं कर्तुमशक्यं भवति, अवलेखनिका-वधक्युपकरणविशेषः, तद्धारोल्लिखितमत्यन्तकुटिलं भवति शेषं गतार्थम् । ___ एवं तथाविधा मायाऽपि, अनन्तानुबन्धिनी तीव्रा न कदापि जीवनपर्यन्तं सरलाविधातुं शक्या भवति तथाविधां मयामनुसृताः प्राणिनो मरणानन्तरं नरकेषु उत्पत्तिं लभन्ते एवमेवक्रोध उत्पन्न होते ही उपशान्त हो जाता है, उसका वह क्रोध संज्वलनक्रोध कहलाता है। इस प्रकार के क्रोध वाले जीव देवगति में उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार मान भी चार प्रकार का है । अनन्तानुबंधी मान तीव्र, अप्रत्याख्यानी मान मध्य, प्रत्याख्याती मान विमध्य और संज्वलन मान मन्द होता है। यह चार प्रकार का मान अनुक्रम से शैलस्तम्भ के समान, और अस्थिस्तम्भ के समान, दारुस्तभ्म के समान और तृणस्तभ्म के समान जानना चाहिए। जैसे शैलस्तंभ अर्थात् पर्वत कदापि नहीं नमता, उसी प्रकार किसी निमित्त से उत्पन्न हुआ जो मान जीवनपर्यन्त नहीं मिटता, वह अनन्तानुबन्धी मान कहलाता है । इस मान के वशीभूत होकर मरने वाले प्राणी नरकगति में उत्पन्न होते हैं इसी प्रकार वह अस्थिस्तंभ (हड्डी) आदि के समान मान भी पूर्वोक्त क्रोध के सदृश ही घटित करलेना चाहिए । उनके फलस्वरूप होने वाली गति भी पूर्ववत् ही समझलेना चाहिए। इसी प्रकार माया भी चार प्रकार की है--अनन्तानुबंधी माया, अप्रत्याख्यानी माया, प्रत्याख्यानी माया और संज्वलनमाया । क्रोध और माना की भाँति माया भी अनुक्रम से तीव्र मध्य, विमध्य और मन्द होती है । अनन्तानुबंधी माया वांस की जड़ के समान, अप्रत्याख्यती माया मेढे के सींग के समान, प्रत्याख्यानी माया गोमूत्रिका (चलते-चलते मूतने वाले बैल के मूत्र की टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं) के समान और संज्वलन माया अवलेखनिका के समान होती है। तात्पर्य यह है कि जैसे वांस की जड़ अत्यन्त कुटिल--वक्र होती है और हजार प्रयत्न करने पर भी सीधी नहीं हो सकती, इसी प्रकार तीव्र अनन्तानुबंधी माया भी जीवनपर्यन्त कदापि नहीं मिटाई जा सकती । इस माया के वशीभूत होकर मरने वाले जीव मरण के अनन्तर नरकगति
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy