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________________ ३८२ तत्त्वार्थसूत्रे एवमनन्तानुबन्धी क्रोध उत्पन्नः सन् भवापेक्षया यावत्कालं तस्मिन् भवे जीवस्तिष्ठति, तावत्कालमनुवर्तते न तस्यास्ति कश्चिदुपसंहरणोपायः, तदनुमरणाच्च भूयसा नरकं व्रजति मध्यः खल्वप्रत्याख्यानकषायक्रोधो भूमिराजिसदृशः संवत्सरमात्रकालानुबन्धी भवति, यथा - भूमौ राजिः समुद्भूतासती - अवश्यमेव वर्षासु विनाशमुपगच्छति, एवमेव - तथाविधः क्रोधः समुत्पन्नो वर्षाभ्यन्तरे प्रशान्तो भवति, मरणानन्तरं च तादृशक्रोधशालिनो जीवास्तिर्यग्योनौ समुत्पद्यन्ते । विमध्यस्तावत्-प्रत्याख्यानकषायक्रोधो वालुकाराजिसदृशो भवति, यथा - वालुकायां काष्ठशलाका--शर्करादीनामेकतमेन निमित्तेन सगुत्पन्नः राजिः प्रकर्षतश्चतुर्मासाभ्यन्तरे पुनः सन्धानमेति, एवमेव- तथाविधः क्रोधः समुत्पन्नः प्रत्याख्यानावरणकषायश्चतुर्मासाभ्यन्तरे नियमतः उपशाम्यति, तथाविधं क्रोध मनुसृताः प्राणिनो मरणानन्तरं मनुष्ययोनौ समुत्पद्यन्ते । मन्दः पुनः--संज्वलनकषायक्रोध उदकराजिसदृशो भवति, यथा उदके दण्डशलाकाऽङ्गुल्यादीनामेकतमेन निमित्तेन समुत्पना राजिरुदकस्य द्रवत्वाद् उत्पत्यनन्तरमेव झटित्येव सन्धानमेति, एवं यथोक्तनिमित्तोत्पन्नो यस्य विदुषोऽप्रमत्तस्य क्रोधो भवति तस्य प्रत्यवमर्शेनो त्पत्यनन्तरमेव व्यपगतो भवति, तथाविधं क्रोधमनुसृताः प्राणिनो देवेषु समुत्पद्यन्ते । शिला है तब तक बनी रहती है, जुड़ नहीं सकती, इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी क्रोध उत्पन्न होता है तो वह जीवनपर्यन्त कभी नहीं शान्त होता । उसका संस्कार जीवनव्यापी होता है । उसके संस्कार को नष्ट करने का कोई उपाय नहीं है । अनन्तानुबंधी क्रोध के साथ मरण प्राप्त करने वाले जीव प्रायः नरक गति में उत्पन्न होते हैं । अप्रत्याख्याती क्रोध मध्य श्रेणी का होता है । वह भूमि में पड़ी हुई दरार के समान है, जिसका संस्कार एक वर्ष तक बना रहता है । तात्पर्य यह है कि जैसे जमीन में जो दरार पड़ जाती है, वह वर्षाऋतु में अवश्य ही मिट जाती है । इसी प्रकार जो क्रोध एक बार उत्पन्न होकर एक वर्ष के अन्दर - अन्दर प्रशांत हो जाता है, वह अप्रत्याख्यानी क्रोध कहलाता है । इस क्रोध वाले जीव मृत्यु के पश्चात् तिर्यच गति में उत्पन्न होते हैं । I प्रत्याख्यानावरण का क्रोध विमध्य कहा गया है वह वालुका में खींची हुई रेखा के समान होता है । तात्पर्य यह कि वालु के ढेर में लकड़ी से या अन्य किसी सलाई से अगर रेखा बना दी जाय तो वह अधिक से अधिक चार महीने के भीतर मिट जाती है। इसी प्रकार जो क्रोध नियम से चार मास में शान्त हो जाय वह प्रत्याख्यानक्रोध कहलाता है । इस क्रोध वाले जीव मर कर मनुष्ययोनि में जन्म लेते हैं । संज्वलनको मन्द होता है । वह जल में खींची हुई रेखा के समान कहा गया है । पर्य यह है कि दण्ड, शलाका या उंगली आदि से जल में यदि रेखा खीची जाय तो जल तरल होने से वह रेखा उसी समय मिट जाती है, इसी प्रकार जिस अप्रमत्त ज्ञानी पुरुष का
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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