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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ०३ सू०९ मोहनीयकर्मण उत्तरकर्मनिरूपणम् ३७५ सभ्यक्त्ववेदनीयं तावत् शुद्धपुद्गलप्रत्ययआत्मनस्तत्त्वार्थश्रद्धानपरिणामः, स चौपशमिकसास्वा. दन–वेदक-क्षायोपशमिक–क्षायिकभेदेन; पञ्चविधः, तत्र दर्शनमोहसप्तके उपशान्ते सति औपशामिकं भवति, सदैव सम्यक्त्वमन्तर्मुहूर्तकालावच्छिन्नं बोध्यम् , उपशमसम्यग्दर्शनकाले संयोजनाः षण्णामावलिकानामन्ते कस्यचिदुभयभावं गच्छन्ति; अनन्तानुबन्धिभिरूपशमसम्यक्त्वं नित्यमेव विहन्यते, उक्तञ्च “संयोजनोदयश्चेत् स्यात्सास्वादनसम्यक्त्वम् । तस्य विशुद्धयतस्तदभावात्-सम्यक्त्वमनवद्यम्" ॥१॥ क्षायोपशमिकसम्यक्त्वपुद्गलचरमग्रासानुभवकाले वेदकसम्यक्त्वं भवति उदितमिथ्यात्वपुद्ग लक्षये अनुदितमिथ्यात्वोपशमे च क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वं भवति, क्षायिकं सम्यक्वं पुनर्निरवशेषदर्शनमोहक्षये सति संजायते, न नु-विशुद्धपुद्गलक्षये तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणस्य परिणामस्याऽभावो भवति । तथाचोक्तम् "प्रक्षीणे तहि सम्यक्त्वे सम्यग्दृष्टिः कथं मता ? क्षयो द्रव्यस्य तत्रेष्टः परिणामस्य न क्षयः-,, ॥१॥ इति, सम्यग् मिथ्यात्ववेदनीयन्तु-प्रथमतः सम्यक्त्वमुत्पादयन् करणत्रयं विधायो-पशमसम्यकुत्वमासादयति । तदनन्तरम् मिथ्यात्वदलिकं त्रिपुञ्जीत्वेन शुद्धमिश्राऽशुद्धत्वेन परिणमति। तदुक्तम् सम्यक्त्त्वगुणेन ततो विशोधयति कर्म तच्च मिथ्यात्वम्। यद्वच्छकृत्प्रभृतिभिः शोध्यन्ते कोद्रवा मदना:-॥११॥ इति, इत्येवं तावत् त्रिविधं दर्शनमोहीयकर्मोत्तरप्रकृतिबन्धं प्रतिपाद्य, सम्प्रति-पश्चविंशतिविधम् चारित्रमोहनीयकर्मोत्तरप्रकृतिबन्धं प्रतिपादयति । क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के अन्तिम पुद्गलों का अनुभव करने के काल में वेदक सम्यक्त्व होता है। उदय में न आये मिथ्यात्व के पुद्गलोंका क्षय, और उदय में न आये मिथ्यात्व का उपशम होने पर क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है । सम्पूर्ण दर्शनमोहनीय का क्षय होने पर क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है । ऐसा नहीं है कि विशुद्ध पुद्गलों का क्षय होने पर तत्त्वार्थश्रद्धान रूप परिणाम का अभाव हो जाए। कहा भीहै-- सम्यक्त्व मोहनीय को पुद्गगलों के क्षय हो जाने पर सम्यग दृष्टि कैसे मानी गई है ? इस का उत्तर यह है कि वहाँ द्रव्य का क्षय माना गया है, परिणाम का क्षय नहीं ॥१॥ सम्यग-मिथ्यात्व वेदनीय पहले सम्यक्त्व को उत्पन्न करता हुआ, तीन करण कर के, उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । तदनन्तर मिथ्यात्व के दलिक को शुद्ध, मिश्र और अशुद्ध, इस प्रकार तीन पुंज के रूप में परिणत करता है। कहाभी है। तत्पश्चात् सम्यक्त्वगुण के द्वारा मिथ्या कर्म का उसी प्रकार विशोधन करता है जैसे छाछ आदि से मदन कोद्रव शुद्ध किये जाते हैं ॥१॥
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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