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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० ३ सू०९ मोहनीयकर्मण उत्तरकर्मनिरूपणम् ३७६ मिथ्यात्वस्य युदये जीवो विपरीतदर्शनो भवति । न च तस्मै सद्धर्मः स्वदेत पित्तोदये घृतवत् ॥१॥ इति, उक्तरीत्या च मिथ्यात्वशुद्धौ ग्रन्थिभेदानन्तरं सम्यक्त्वावाप्तिर्भवति, तदनन्तरञ्च "सम्यक्त्वगुणेन ततो विशोधयति कर्म तच्च मिथ्यात्वम् । यद्वच्छकृत्प्रभृतिभिः शोध्यन्ते कोद्रवामदनाः ॥१॥ यत् सर्वथा तत्र विशुद्धं तद्भवति सम्यक्त्वम् । मिश्रंतु दरविशुद्धं भवत्यशुद्धं च मिथ्यात्वम् ॥२॥ इति, मदनकोद्रवा स्तु व्यवस्था भवन्ति अविशुद्ध विशुद्ध-दरविशुद्धाः तस्मादत्र तदृष्टान्तः मिथ्यात्व-सम्यग् मिथ्यात्वेषु मिथ्यात्वोदयाच्च तत्त्वार्थाश्रद्धा भवति विपरीतदृष्टित्वात् । तथाचोक्तम् ।। ननु कोद्रवान् मदनकान् भुक्त्वा नात्मवशनां नरो याति । शुद्धादी (शुद्धभक्षी) न च मुह्यति मिश्रगुण श्चापि मिश्राद् वा ॥१॥ इति, स खलु मिथ्यात्ववान् मिथ्यात्वोदयानुगुणपरिणामवर्तित्वेन पीतमद्यहृत्पूरभक्षणपित्तोदयाद् व्याक्षिप्तेन्द्रियकरणपुरुषवदयथास्थितार्थरुचिविघातकारिणा मिथ्यात्वेन विपरीतमेव प्रतिपद्यते, उक्तञ्च मिथ्यात्व का उदय होने पर जीव की दृष्टि (रुचि, प्रतीति, श्रद्धा) विपरीत हो जाती है । उसे समीचिन धर्म रुचता नहीं, जैसे पित्त का प्रकोप होने पर घृत भी कटुक लगने लगता है ॥१॥ मिथ्यात्व की शुद्धि होने पर ग्रंथिभेद को पश्चात् सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है । तदनन्तरजीव अपने सम्यक्त्व गुण के द्वारा मिथ्यात्व कर्म का विशोधन करता है, जैसे मादक कोद्रवों को छाछ आदि से शोधित किया जाता है । शोधन करने पर जो कर्म विशुद्ध हो जाता है, वह सम्यक्त्व मोहनीय कर्म कहलाता है । जो अर्द्ध शुद्ध होता है अर्थात् कुछ शुद्ध और कुछ अशुद्ध होता है वह मिश्र कहलाता है और जो पूरि तरह अशुद्ध रहता है वह मिथ्यात्व कर्म कहलाता है ॥१-२॥ मदनकोद्रव की तीन अवस्थाएं होती है-अविशुद्ध, विशुद्ध और अर्धविशुद्ध । इस कारण यहाँ उसका दृष्टान्त दिया गया है। मिथ्यात्व, सम्यक्त्वमोह और मिश्रमोह में से मिथ्यात्व के उदय से तत्त्वार्थ में अश्रद्धा होती है क्योंकि मिथ्यात्व के उदय से जीव विपरीत दृष्टि वाला हो जाता है। कहा भी है... मदन-कोद्रवों को खाकर मनुष्य अपने वश में नहीं रहता है । शुद्ध किये हुए कोद्रवों को खाने वाला मोहित-मूढ़ नहीं होता और अर्द्ध शुद्ध कोद्रवों को खाने वाला अर्द्ध मूर्छित होता है जैसे मदिरापान करने से अथवा धतूरे के भक्षण से या पित्त के प्रकोप से जिसकी इन्द्रियाँ विक्षिप्त हो जाती हैं, ऐसा पुरुष वास्तविकता-अवास्तविकता का विवेक नहीं कर पाता, इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव समीचीन तत्त्वरुचि का विधान करने वाले मिथ्यात्व के उदय से विपरीत ही श्रद्धा करता है । कहा भी है
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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