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________________ ~ि ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ तस्वार्थसूत्रे गत्यन्तराणि इत्यायुः, आयुरेवाऽऽयुष्यम्-५ नमयति-प्रह्वयति-आत्मानं नानायोनिषु गत्याधभिमुखमिति नाम-नम्यतेऽनेनेति नामशब्दकर्तृकरणसाधनः-६ उच्च-नीचभेदलक्षणं गोत्रं, गच्छति-प्राप्नोति आत्मा यत् तद्गोत्रम्-७ आत्मनो वीर्यलाभादि अन्तर्धीयते येन सोऽन्तरायः-८ । एवञ्च-ज्ञानावरण-दर्शनावरणोदयजनिता भवव्यथा सर्वसंसारिप्राणीनां भवति । ताञ्च भवव्यथां वेदयमानोऽपि जीवो मोहग्रस्तत्वान्न विरज्यति । अविरक्तश्चनारक-देवमानुष-तिर्यगायुषि वर्तमानो भवति । नहिनामरहितं जन्म सम्भवति । जन्मधारिणश्च प्राणिनः सर्वदैवोच्चावच-गोत्रेणाऽनुस्यूता भवन्ति' तत्रापि संसारिणां जीवानां सुखलवानुभवः सर्वोऽपि सान्तरायो भवति, इत्येवमष्टविधं मूलप्रकृतिबन्धरूपं कर्माऽवगन्तव्यम् ॥४॥ मूलसूत्रम्-"एए पंच नवदुअट्ठावीसचउदोचत्तालीसदुपंचभेया-" ॥५॥ छाया-"एते पच्च नव द्यष्टाविंशतिचतुर्द्विचत्वारिंशद्विपञ्चमेदा:-" ॥५॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्रेऽष्टविधो मूलप्रकृतिबन्धः प्ररूपितः, सम्प्रति-सप्तनवतिविधम् जिसके कारण सुख और दुःख रूप वेदन-अनुभूति हो, उसे वेदनीय कहते है । जीव को जो मूढ़ अर्थात् तत्त्वातत्त्व के विवेक से विकल बना देता है या जिसके द्वारा जीव मोहित किया जाता है, वह मोहनीय है। मोहित होना भी मोहनीय है । 'मोहनीय' शब्द करणसाधन, कर्तसाधन और भावसाधन भी है । जिसके कारण जीव नरक गति आदि को प्राप्त करके वहाँ स्थित रहता है, वह आयु है। 'आयु' को ही 'आयुष्य' भी कहते हैं। जो कर्मप्रवृत्ति आत्मा को नाना योनियों में गति आदि के सन्मुख नमाती है या जिसके कारण आत्मा नमता है, वह नाम है । यह नाम शब्द कर्तृसाधन और करणसाधन हैं। ___ गोत्र के दो भेद हैं— उच्च और नीच । आत्मा जिसे प्राप्त करता है वह गोत्र है । आत्मा के वीर्य में तथा लाभ आदि में जो अन्तर-विघ्न डालता है, वह अन्तराय है। इस प्रकार ज्ञानावरण और दर्शनावरण के उदय से उत्पन्न होने वाली भवव्यथा समस्त संसारी जीवों को होती है। उस भवव्यथा का वेदन करता हुआ भी जीव मोह से ग्रस्त होने के कारण विरक्त नहीं हो पाता और जब विरक्त नहीं होता तो नारक, तिर्यंच, देव, और मनुष्य आयु में वर्तता है । जब किसी आयु में रहता है तो उसका नारक आदि कोई न कोई नाम अवश्य होता है, क्योंकि नाम से रहित जन्म होता नहीं । जन्मधारी प्राणी सदैव उच्च या नीच गोत्र से युक्त होते हैं। संसारी जीवों को वहाँ जो सुख के लेश का अनुभव होता है, वह भी अन्तराययुक्त अर्थात् विघ्नों से परिपूर्ण होता है। यह आठ प्रकार का मूलप्रकृतिबंध समझना चाहिए। मलसूत्रार्थ--"एए पंचनवदुअठावीसचउदो” इत्यादि । सूत्र-५ __ मूल कर्मप्रकृतियों के क्रमशः पाँच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, वयालीस, दो और पाँच भेद हैं॥५॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्र में आठ प्रकार का मूलप्रकृतिबन्ध कहा गया है । अब सत्तानवे (९७) प्रकार के उत्तरप्रकृति बन्ध की प्ररूपणा करते हैं
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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