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________________ ३३० तत्त्वार्थसूत्रे सन्त्येव, किन्तु-द्रव्यादव्यतिरिच्यमान स्वरूपा एव गुणा भवन्ति । तथाच-यदि द्रव्यं शुक्लाद्याकारेण परिणतं भवति, तदा-नीलाद्याकारपरिणामो न भवति । तस्मात्-निर्गुत्वं तेषां स्पष्टमेव भवतीति भावः । उक्तञ्चोत्तराध्ययनसूत्रे २८ अध्ययने ६ गाथायाम्-"दव्वस्सिया गुणा-" इति, द्रव्याश्रिता गुणा इति । द्रव्याश्रिता इति निर्गुणानामप्युपलक्षणमित्यवगन्तव्यमिति भावः ॥३०॥ मूलसूत्रम्-"तब्भावी परिणामो-" ॥३१॥ छाया--"तद्भावः परिणामः-". तत्त्वार्थदीपिका--"पूर्व बहुतरं परिणामस्य विचारः कृतः तत्र-कस्तावत् । परिणामपदार्थ इत्याकाङ्क्षायामाह---"तब्भावो परिणामो-" इति, तद्भावः परिणामः धर्माधर्माकाशादीनि द्रव्याणि येन स्वरूपेण भवन्ति । तस्य स्वरूपस्य भवनं तद्भावः-तत्स्वरूपप्राप्तिः परिणाम इति व्यपदिश्यते । स च-परिणामो द्विविधः, अनादिः-सादिश्च । तत्र-धर्माधर्माकाशादीनां द्रव्याणां गत्युपग्रहस्थित्युपग्रहाऽवगाहोपग्रहादयः सामान्यापेक्षया शंका--द्रव्यार्थिक नय के मत से गुणों का अस्तित्व ही नहीं है तो अभिन्नता कैसे मानी जा सकती है? ___समाधान—द्रव्यार्थिकनय के मत से भी गुणों का अस्तित्व तो है मगर वे द्रव्य से भिन्न हैं। द्रव्य जब शुक्ल रूप में परिणत होता है तब उसमें नीलाकार आदि परणमन नहीं होता, अतएव गुणों की निर्गुणता स्पष्ट ही है । जैसे द्रव्य में गुण रहता है वैसे गुण में गुण नहीं रहता। शंख में शुक्लता गुण है मगर उस शुक्लता में पुनः शुक्लता नहीं रहती-वह स्वयं शुक्लता स्वरूप ही है। उत्तराध्ययन सूत्र के २८ वें अध्ययन की ६ ठी गाथा में कहा है---'गुण द्रव्यों के आश्रित होते हैं ' यहाँ द्रव्य के आश्रित कहने से उपलक्षण से गुणों को निर्गुण भी समझ लेना चाहिए ॥३०॥ मूलसूत्रार्थ--"तब्भावो परिणामो" सूत्र ॥३१॥ धर्म आदि द्रव्यों का अपने-अपने स्वरूप में होना ही परिणाम कहलाता है ॥३२॥ तत्त्वार्थदीपिका--पहले परिणाम का अनेक स्थलों पर उल्लेख किया गया है, मगर परिणाम का अर्थ क्या है ? इस प्रकार की जिज्ञासा होने पर कहते हैं धर्म, अधर्म, आकाश आदि द्रव्य जिस स्वरूप से होते हैं उस स्वरूप का होना अर्थात् स्वरूप की प्राप्ति परिणाम है । वह परिणाम दो प्रकार का है-अनादि और सादि । धर्म, अधर्म और आकाश आदि द्रव्यों का गति-उपग्रह, स्थिति–उपग्रह और अवगाहउपग्रह आदि सामान्य रूप से अनादि परिणाम कहलाता है । वही परिणाम विशेष की अपेक्षा से
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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