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________________ दीपिकानिर्युक्तिश्च अ० २ सू. ३० गुणस्वरूपनिरूपणम् ३२९ दिगुणपरिणतेः अयुगपद्भाविन्याः पिण्डघटकपालादिपर्यायपरिणतेश्च परिणामिस्थित्यंशलक्षणमाश्रयो भवति । उत्पादव्ययस्वरूपाणां रूप-रस- गन्ध-स्पर्शादिलक्षणानां ज्ञानदर्शनादिलक्षणानां गुणानां घटस्थासकोशादिलक्षणपर्यायाणाञ्च परिणामविशेषाणां सामान्यं परिणामिद्रव्यमाश्रयो वर्तते - द्रव्यमेव सामान्यात्मकं रूपरसादिज्ञानादिगुणतया - पिण्डघटादिपर्यायादितया च परिण मते, पुनस्तेनाकारेण निवर्तते - द्रव्यतया व्यवस्थितञ्च भवति । परिणाम - परिणामिनोर्द्रव्यार्थिकनयद्वयापेक्षया कथञ्चिदभिन्नत्वं कथञ्चिद् भिन्नत्वञ्चाऽवगन्तव्यम् । तथा चैषां शुक्लादिरूपादिज्ञानादिगुणानां केचन नाऽन्ये गुणाः सन्तीति ते निर्गुणाः इति व्यपदेशस्तावद् गुणगुणिनो दे सति सम्भवति । स च भेदः कथञ्चिदभ्युपगम्यते - नत्वेकान्तेन, सर्वस्य वस्तुनो भेदाभेद स्वरूपत्वात् । यदा पुनर्द्रव्यमेव तथा परिणतं भवति - शुक्लादिरूपरसाद्यात्मना, ज्ञानदर्शनाद्यात्मना च तदाद्रव्यस्य तादात्म्येन गुणानां स्वरूपं भिन्नं नाऽस्तीति कथञ्चित्तयोरभिन्नत्वं भवति । तथा च – केवलद्रव्यार्थिकनयमपेक्ष्याऽनन्यत्वमेव द्रव्याद्गुणानां निर्गुणत्वं व्यपदिश्यते । पर्यायार्थिकनयापेक्षया तु - गुणप्रधानत्वात् कथञ्चिद् द्रव्याद् गुणानां भिन्नत्वमपि व्यपदिश्यते । अथ द्रव्यार्थिकनयपक्षे गुणा एव न सन्तीति कुतोऽनन्यत्वं भवेदिति चेदत्रोच्यते, तत्पक्षेऽपि - गुणाः आदि गुणपरिणति तथा क्रमभाविनी पिण्ड घट- कपाल आदि पर्याय परिणति के योग्य होता है । वह परिणामी और ध्रुव - अंश रूप है, आश्रय है । उत्पाद और व्यय स्वरूप रूप रस गंध स्पर्श तथा ज्ञान दर्शन आदि रूप गुणों का एवं घट स्थास कोश आदि रूप पर्यायों का आश्रय द्रव्य है । द्रव्य ही सामान्यात्मक रूप रस आदि एवं ज्ञानादि गुणों के रूप में तथ्य पिण्ड घट आदि पर्यायों के रूप में परिणमन करता है, फिर उन-उन आकारों से निवृत्त होता है और द्रव्य रूप से अवस्थित रहता है । परिणाम और परिणामी में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा कथंचित् अभिन्नता और कथंचित् भिन्नता जानना चाहिए । इन शुक्ल आदि रूप आदि तथा ज्ञान आदि गुणों के अन्य कोई गुण नहीं है, अतएव वे निर्गुण हैं, इस प्रकार का कथन तभी संभव हो सकता है जब गुण और गुणी में भेद माना जाय । वह भेद कथंचित् ही स्वीकार किया जाता है, एकान्त रूप से नहीं, क्योंकि सभी वस्तुएँ भेद और अभेद रूप हैं । जब द्रव्य ही शुक्ल रस आदि रूप में या ज्ञान दर्शन आदि के रूप में परिणत होता है तो द्रव्य के साथ तादात्म्य संबंध होने के कारण गुण द्रव्य से भिन्न नहीं हो सकते । इस प्रकार उनमें कथंचित् अभिन्नता है । यह अभिन्नता केवल द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से ही समझना चाहिए और गुणों को निर्गुण समझना चाहिए । पर्यायार्थिक नय से गुणों की प्रधानता होने के कारण द्रव्य से गुण कथंचित् भिन्न भी हैं । ४२
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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