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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० २ सू० २८ स्कन्धानां बन्धत्वनिरूपणम् ३२१ गुणयोर्वाऽवसेयम् । तथाच-अन्यमात्मसात् कुर्वन् परिणमति इति व्युत्पत्त्या परिणामक इति व्यपदिश्यते, परिणम्य गुणसंख्यां वा निरस्य स्वगुणसंख्यामपरित्यजन् परिणमते इति परिणामको भवति । यद्वा-परिणमनं परिणामस्तं करोति परिणामयति इति परिणामक स्वात्मरूपेणाऽन्यस्यापि परिणामं विधातीति सर्वमुपपन्नम् । अत्रेदं बोध्यम् स्निग्धगुण-रूक्षगुणपुद्गलानां परस्परसंघटलक्षणो बन्धः संजायते, किन्तु जघन्य गुणानां स्निग्धानां रूक्षाणां वा पुद्गलानां बन्धो न भवति । यथा-एकगुणस्निग्धस्य पुद्गलस्य एक गुणस्निग्धेन द्वि-त्रि चतुरादि संख्येयाऽसंख्येयाऽनन्तानन्तगुणास्निग्धेन च पुद्गलेन सह बन्धो न भवति । एवं तस्यैव-एकगुणस्निग्धस्य पुद्गलस्य एकगुणरूक्षेण द्वि-त्रि-चतुरादिसंख्येयाऽसंख्येयाऽनन्तगुणरूक्षेण च पुद्गलेन सह बन्धो न भवति । एवम्-एकगुणरूक्षस्यापि पुद्गलस्य-एकगुणरूक्षेण द्वि-त्रि चतुः प्रभृतिसंख्येयाऽसंख्येयाऽनन्तगुणरूक्षेण च पुद्गलेन सह बन्धो न भवति । एवमेकगुणरूक्षस्य पुद्गलस्य एकगुणस्निग्धेन यादिसंख्येयासंख्येयाऽनन्तगुणस्निग्धेन च पुद्गलेन सह बन्धो न भवतीति भावः । गुणशब्दस्य नानार्थकत्वेऽपि प्रकृतेर्भागार्थः परिगृह्यते । एवञ्च-जघन्या निकृष्टा गुणाभागाः येषां परमाण्वादिपुद्गलानां ते जघन्यगुणाः एकगुणस्निग्धरूक्षपरमाण्वादि पुद्गला उच्यन्ते जो दूसरे को अपने रूप में परिणत कर लेता है अर्थात् पलट लेता है वह परिणामक कह लाता है । या परिणत होने वाले पुद्गल की गुण संख्या को हटा कर अपनी गुणसंख्या को नहीं त्यागता हुआ जो परिणत होता है, वह परिणामक कहलाता है। ____ अथवा परिणमन या परिणाम को जो उत्पन्न करता है वह परिणामक कहलाता है । वह दूसरे को अपने स्वरूप में बदल लेता है। यहाँ यह समझ लेना चाहिए--स्निग्धता और रूक्षता गुण वाले पुद्गलों का परस्पर बन्ध होता है, किन्तु जघन्य गुण वाले स्निग्ध और रूक्ष पुद्गलों का बन्ध नहीं होता । जैसे-एक गुण स्निग्ध पुद्गल का एक गुण स्निग्ध के साथ तथा द्विगुण, त्रिगुण, चतुर्गुण यावत् संख्यात असंख्यात और अनन्त गुण स्निग्ध पुद्गल के साथ बन्ध नहीं होता है। इसी प्रकार एक गुण स्निग्ध पुद्गल का एक गुण रूक्ष के साथ तथा दो तीन चार संख्यात असंख्यात और अनन्त गुण वाले रूक्ष पुद्गल के साथ बन्ध नहीं होता है। इसी प्रकार एक गुण रूक्ष पुद्गल का एक गुण रूक्ष पुद्गल के साथ तथा दो तीन चार संख्यात असंख्यात और अनन्त गुण वाले रूक्ष पुद्गल के साथ बन्ध नहीं होता। इसी प्रकार एक गुण रूक्ष पुद्गल का एक गुण स्निग्ध के साथ तथा दो आदि संख्यात असंख्यात और अनन्त गुण वाले स्निग्ध पुद्गल के साथ बन्ध नहीं होता। .. गुण शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, मगर यहाँ उसका 'भाग' अर्थ है । अतएव जिन परमाणु आदि पुद्गलों में जघन्य अर्थात् सब से कम गुण-भाग हो, वह जघन्यगुण कहलाता है। जिनमें
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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