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________________ AMAnnar तत्त्वार्थसूत्रे __ एवम्-किमेकगुणस्निग्धः पुद्गलः एकगुणस्निग्धं पुद्गलं स्वात्मसात्करोति ? इति चेत्सत्यम् संघट्टात्मके बन्धे सति तुल्यगुणस्य पुद्गलस्य तुल्यगुणः पुद्गलःपरिणामको भवति अधिकगुणः पुनः पुद्गलो हीनगुणस्य पुद्गलस्य परिणामको भवति । तथाच-संघटलक्षणे परस्परबन्धे सति विस्रसाद्वारेण तुल्यगुणौ द्विगुणस्निग्धः पुद्गलः तुल्यगुणस्य तद्विगुणरूक्षस्य परिणामको भवति स्वगतेन स्नेहगुणेन रूक्षतागुणं स्वात्मसात्करोतीति भावः । __एवं तुल्यगुणो द्विगुणरूक्षः पुद्गलो विस्रसाद्वारेण तुल्यगुण-तद् द्विगुणस्निग्धस्य कदाचित्परिणामको भवति, स्वगतेन रूक्षतागुणेन स्नेहगुणमात्मसात् करोति इति भावः । गुणसाम्ये पुनः-सदृशानां बन्धो न भवति, उपरितनौ तु -पुद्गलौ विसदृशौ वर्तेते एकः पुद्गलो द्विगुणस्निग्धो. अन्यस्तु द्विगुणरूक्ष इति भावः । स्नेहरूक्षत्वयोभिन्नजातीयतया सादृश्याभावात् । किन्तु-त्रिगुणस्निग्धः पुद्गलोऽधिकगुणत्वात् हीनगुणस्य-एकगुणस्निग्धस्य पुद्गलस्य परिणामको भवति तथाच-एकगुणस्निग्धः पुद्गलस्त्रिगुणस्निग्धतामासादयति कस्तूरिकांशाषक्तविलेपनवत् एतावच्च बन्धजातं समगुणयो विषमगुणयोर्वाऽवगन्तव्यम् । एवं—परिणाम्यत्वञ्चाऽपि समगुणयो-विषमपरिणत करता है ? इसी प्रकार एक गुण स्निग्ध पुद्गल एक गुण स्निग्ध पुद्गल को अपने रूप में परिणत कर लेता है ! उत्तर-बन्ध होने पर तुल्य गुण वाला पुद्गल तुल्य गुण वाले पुद्गल को अपने रूप में परिणत करता है। और जो अधिक गुण वाला पुद्गल होता है वह हीन गुण वाले पुद्गल को अपने रूप में परिणत कर लेता है । अतएव संधट्ट रूप परस्पर बन्ध होने पर स्वभाव से तुल्य गुण वाला दो गुण स्निग्ध पुद्गल तुल्य गुण वाले दो गुण रूक्ष पुद्गल का परिणामक हो जाता है अर्थात् अपने रूप में परिणत कर लेता है । तात्पर्य यह है कि अपने अन्दर रहे हुए स्नेह गुण के द्वारा रूक्षता गुण को आत्मसात् कर लेता है। इसी प्रकार तुल्य गुण वाला द्विगुण रूक्ष पुद्गल स्वभाव से ही तुल्यगुण या उससे द्विगुण स्निग्ध पुद्गल को परिणत कर लेता है; अर्थात् अपने में रहे हुए रूक्षता गुण से स्नेह गुण को आत्मसात् कर लेता है । गुणों की समानता होने पर सदृश पुद्गलों का बन्ध नहीं होता । ऊपर के पुद्गल विसदृश होते हैं अर्थात् एक पुद्गल द्विगुण स्निग्ध और दूसरा द्विगुण रूक्ष होता है । स्निग्धता और रूक्षता भिन्नजातीय होने के कारण उनमें सदृशता का अभाव है। किन्तु त्रिगुण स्निग्ध पुद्गल अधिक गुण वाला होने से एक गुण स्निग्ध पुद्गल को अपने स्वरूप में परिणत करता है । उस अवस्था में एक गुण स्निग्ध पुद्गल त्रिगुण स्निग्ध बन जाता है, जैसे कस्तूरी के अंश से युक्त विलेपन । यह समान गुण वालों का और विषम गुण वालों का बन्ध समझना चाहिए । इसी प्रकार सम गुण एवं विषम गुण वालों का परिणम्यत्त्व भी जान लेना चाहिए।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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