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________________ तत्त्वार्थसूत्रे उक्तञ्च-स्थानाङ्गसूत्रे २-स्थाने३-उद्देशके ८२-सूत्रे..."दुविहा पोग्गला पण्णत्ता, तंजहापरमाणुपोग्गला, नोपरमाणुपोग्गला चेव ." इति । द्विविधाः पुद्गलाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथापरमाणुपुद्गलाः-नोपराणुपुद्गलाश्चैव, इति ॥२१॥ __तत्त्वार्थनियुक्तिः- पूर्वं पुद्गलाः प्रतिपादिताः सम्प्रति तेषां भेदान् संक्षेपतः प्रतिपादयितुमाह"पोग्गला दुविहा-" इत्यादि । पुद्गलास्तावत् द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, परमाणवः स्कन्धाश्च, तत्रा-ऽण्यन्ते इत्यणवः परमाश्च ते अणवः परमाणवः सूक्ष्मत्वात् तेषामस्मदादीन्द्रियव्यापाराऽविषयस्वात् केवलसंशब्दे समधिगम्यत्वं वर्तते, न त्विन्द्रियविषयत्वम् - तथाचोक्तम् -. "कारणमेव तदन्त्यं, सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । ___एकरसगन्धवों, द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च-॥१॥ इति । सर्वेषामेव ध्यणुकस्कन्धप्रभृतिस्थूलसूक्ष्मभेदयावदचित्तमहास्कन्धपर्यन्तकार्यम्प्रति परमाणवः कारणम्, तच्च-कारणम् अन्त्यम् , अन्तेऽवसाने वर्तते इत्यन्त्यम् सकलकार्यभेदपर्यन्तबर्तित्वात् । तत्रयणुकादिमहास्कन्धपर्यन्तस्य मूर्तस्य वस्तुनः परमाणवः कारणम्, अमूर्तस्य-ज्ञानादेरात्मादयः कारणम्. तदुभयमपि कारणं न सर्वथा विनष्टं भवति । तथासति-तस्या-ऽसत्वापत्तिः स्यात् न वा तादृगवस्थं तदुभयं किञ्चिजनयति. गगनकुसुमवत् . ते च परमाणवः सूक्ष्मा निरवयवा नित्याच जाने जाते हैं । वे निरवयव और सूक्ष्म होते हैं । स्कंधरूप पुद्गल हमारे ग्रहण में आ सकते हैं, क्योंकि वे सावयव और स्थूल होते हैं । स्थानांगसूत्र के दूसरे स्थानक के तीसरे उद्देशक के ८२ वें सूत्र में कहा है पुद्गल दो प्रकार के हैं--परमाणुपुद्गल और नोपरमाणु पुद्गल ॥२१॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-पहले पुद्गलों का प्रतिपादन किया जा चुका है, अब संक्षेप में उनके भेदों का निरूपण करते हैं-पुद्गल दो प्रकार के हैं--परमाणु और स्कन्ध । परम अणु को परमाणु कहते हैं । परमाणु इतने सूक्ष्म होते हैं कि वे हमारी इन्द्रियों के विषय नहीं हो सकते। उन्हें अनुमान और आगम प्रमाण से ही जाना जा सकता है। कहा भी है परमाणु कारण ही होता है, कार्य नहीं, तथा सूक्ष्म और नित्य होता है । उसमें एक रस, एक गंध, एक वर्ण और दो स्पर्श होते हैं। कार्य ही उसका लिंग है अर्थात् स्कंध से उसका अनुमान किया जाता है। जितने भी द्वयणुक से लेकर अचित्त महास्कंध पर्यन्त स्कन्ध हैं, उनका कारण परमाणु हैं; क्योंकि परमाणुओं के मेल से ही उनकी निष्पत्ति होती है वह अन्त्य है, क्योंकि समस्त भेदों के अन्त तक व्याप्त रहता है । यणुक से लगाकर महास्कन्ध तक की मूर्त वस्तुओं का कारण परमाणु हैं । अमूर्त ज्ञानादि के कारण आत्मा आदि हैं । इन दोनों कारणों का सर्वथा विनाश नहीं होता । ऐसा हो तो उसकी असत्ता की प्राप्ति हो जाए और उस अवस्था में वे किसी को उत्पन्न न कर सकें, जैसे कि आकाशकुसुम किसी को उत्पन्न नहीं कर सकता ।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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