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________________ v vvvvvvvNN~~~~~ दीपिकानियुक्तिश्च अ० २ सू. १८ कालस्य स्वरूपनिरूपणम् २४५ तत्त्वार्थनियुक्तिः-पूर्व धर्माधर्माकाशपुद्गलजीवानामुपकारादिप्रदर्शनद्वारा स्वरूपं निरूपितम्, सम्प्रति-कालस्य स्वरूपं निरूपयितुमाह--"वट्टणा-" इत्यादि । धर्माधर्माकाशपुद्गलजीवानां द्रव्याणां स्वपर्यायनिवृत्तिं प्रति स्वात्मैव वर्तमानानां बाह्योपकाराद् विना तवृत्त्यसंम्भवात् तत्प्रवर्तनोपलक्षितस्तावत्कालो भवतीति द्रव्यपर्यायाणां वर्तना कालकृतउपकारोऽवगन्तव्यः । एवञ्च-द्रव्यपर्यायोवर्तना वर्तते, कालस्तस्य वर्तयिता भवति । अथैवं तर्हि-"शिष्योऽधीते" उपाध्यायस्तमध्यापयतीति वत् कालस्य क्रियावत्ता-आपद्यते इति चेदत्रच्यते मार्गगमने प्रकाशस्योपकारकत्ववत् कारीषोऽग्निः शिष्यमध्यापयतीति व्यवहारे कारीषाऽग्नेः शिष्याध्यापने निमित्तमात्रत्वेऽपि हेतुकर्तृत्वव्यपदेशवत् द्रव्यपर्यायादीनां वर्तनव्यवहारे कालस्य निमित्तमात्रत्वेऽपि हेतुकर्तृत्वव्यपदेशसभ्भवः अथ समयादिनैवोक्तव्यवहारोपपत्तेः कालस्य सत्वे किं प्रमाणमिति चेन्मैवम् । समयादीनां क्रियाविशेषाणां समयादिभि निष्पद्यमानानाञ्च पाकादीनां-"समय:-पाक:-" इत्येवं स्वसंज्ञाप्रसिद्धिसद्भावेऽपि-''समय:-काल:-" "ओदनपाककालः" इत्येवं क्रियमाणः कालव्यपदेशस्तव्यपदेशे हेतुभूतस्य मुख्यस्य कालस्य सत्तामनुमापयति मुख्यापेक्षयैव गौणव्यवहारात् ___ एवं द्रव्यस्थ पर्यायलक्षणे धर्मान्तरनिवृत्तिपूर्वकधर्मान्तरोपजननरूपे अपरिस्पन्दात्मके परिणामे, जीवस्य क्रोधादिरूपे, पुद्गलस्य वर्णगन्धरसस्पर्शादिरूपे, धर्माधर्माकाशाना मगुरुलधुगुणवृद्भिहासरूपे च परिणामे उपकारकतया कालो हेतुर्भवति । तत्त्वार्थनियुक्ति प्रथम धर्म अधर्म आकश एवं पुद्गल जीवों के उपकार प्रकट करके उनके स्वरूप का कथन किया गया है । अब कालका स्वरूप प्रकट करने के लिये 'वट्टणा' इत्यादि रूप आगे का सूत्रका कथन करते हैं-धर्म अधर्म आकाश एवं पुद्गल जीवों के द्रव्यों का स्वपर्याय निवृत्ति प्रति आत्मरूप से वर्तमान बाह्य उपकार के विना उनको वृत्ति का संभव नहीं हो सकता है, उनकी प्रवृत्ति से काल उपलक्षित होता है-जाना जाता है-अतः द्रव्य और पर्याय का वर्तना कालकृत उपकार जानना चाहिए । इस प्रकार द्रव्यपर्याय वर्तनारूप है, और काल उनको वर्तन कराने वाला होता है। शंका-यदि ऐसा है तो शिष्य पढ़ता है, उपाध्याय उसको पढ़ाता है, इत्यादि के समान काल में सक्रियता का प्रसंग उपस्थित होता है । समाधान-जैसे राह चलने में प्रकाश उपकारक होता है कारीष (छाणे की ) अग्नि शिष्य को पढ़ाती है इस प्रकार के व्यवहार में कारीष अग्नि यद्यपि शिष्य के अध्ययन में निमित्त मात्र है, फिर भी उसमें हेतुकर्तृत्व का कथन किया जाता है इसी प्रकार द्रव्य और पर्याय आदि के वर्तनव्यवहार में काल यद्यपि निमिन मात्र है फिर भी इसमें हेतुकर्तृत्व का कथन होना संभव है। शंका-समय आदि से ही उक्त व्यवहार हो सकता है, ऐसी स्थिति में कालके अस्तित्व में क्या प्रमाण है ? समाधान-समय आदि क्रियाविशेषों की तथा समय आदि के द्वारा निष्पन्न होने वाले पाक आदि की समयः पाकः ऐसी संज्ञा की प्रसिद्धि होने पर भी 'समयःकालः' 'ओदनपाककालः'
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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