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________________ तत्त्वार्थसूत्रे सुयअण्णाणपज्जवाणं विभंगनाणपज्जवाणं चक्खुदसणपज्जवाणं अचक्खुदंसणपज्जवाणं ओहिदंसणपज्जवाणं केवलदसणपज्जवाणं उवओगं गच्छइ ” इति । जीवः खलु अनन्तानाम् आभिनिबोधिकज्ञानपर्यवाणाम् एवं श्रुतज्ञानपर्यवाणाम् अवधिज्ञानपर्यवाणाम्, मनःपर्यवज्ञानपर्यवाणां केवलज्ञानपर्यवाणाम् मत्यज्ञा पर्यवाणाम् श्रुताज्ञानपर्यवाणाम् विभङ्गज्ञानपर्यवाणाम् चक्षुर्दर्शनपर्यवाणाम् अचक्षुर्दर्शनपर्यवाणाम् अवधिदर्शनपर्यवाणाम् केवलदर्शनपर्यवाणाम् उपयोगं गच्छति इति । उत्तराध्ययने च २८ अध्ययने १०गाथायामुक्तम् । जीवलक्षणम्-"जीवो उवओगलक्षणो, नाणेणं दंसणेणं च सुहेण य दुहेण य-" इति । जीव उपयोगलक्षणः, ज्ञानेन-दर्शनेन च सुखेन च दुःखेन च, इति ॥ १७ ॥ मूलसूत्रम् - "वट्टणा परिणामकिरियापरत्तापरत्ताणं निमित्तं कालो" ॥ १८ ॥ छाया वर्तनापरिणामक्रियापरत्वाऽपरत्वानां निमित्तं काल:-" ॥१८॥ तत्त्वार्थदीपिका--- पूर्वसूत्रे जीवानां लक्षणं प्रतिपादितम्, सम्प्रति-कालस्य लक्षणं प्रतिपादयितुमाह- "वट्टणा-" इत्यादि कालस्तावत्-धर्मादीनां द्रव्याणां वर्तनव्यवहारस्योपकारकतया भवति । एवं द्रव्यस्य पर्यायतया, जीवस्य क्रोधतया, पुद्गलस्य वर्णरसगन्धस्पर्शादितया, धर्माधर्माकाशानामगुरुलधुगुणवृद्धिहासतया, परिणतिलक्षणस्य च परिणामस्य-उपकारकतया निमित्तं भवति । एवं-परिस्पन्दनात्मकक्रियायाः, ज्येष्ठत्व-कनिष्ठत्वादिव्यवहारलक्षणपरत्वापरत्वयोश्चोपकारकतया कालो निमित्तं भवति ॥१८॥ जीव अनन्त आभिनिबोधिकज्ञान की पर्यायों को, उसी प्रकार श्रुतज्ञान की पर्यायों को, अवधिज्ञान की पर्यायों को, मनःपर्यवज्ञान की पर्यायों को केवलज्ञान की पर्यायों को मतिअज्ञान की पर्यायों को श्रुतअज्ञान की पर्यायों को विभंगज्ञान की पर्यायों को, चक्षुदर्शन की पर्यायों को, अचक्षुदर्शन की पर्यायों को, अवधिदर्शन की पर्यायों को, केवलदर्शन की पर्यायों को अर्थात् इन सब के उपोग को प्राप्त करता है। उत्तराध्ययन के २८ वें अध्ययन की १२वीं गाथा में कहा है- जीव उपयोग लक्षण वाला है । ज्ञान से दर्शन से, सुख से और दुःख से ॥१७॥ मूलसूत्रार्थ-'वट्टणा परिणाम किरिया' इत्यादि सूत्र १८ कालद्रव्य वर्तना परिणाम क्रिया परत्व और अपरत्व का निमित्त कारण है ॥१८॥ तत्त्वार्थदीपिका--पूर्वसूत्र में जीवों के लक्षण का प्रतिपादन किया गया है। अब काल का लक्षण प्रतिपादन करने के लिए कहते हैं-- काल धर्म आदि द्रव्यों की वत्तना अर्थात् वर्तनव्यवहार का उपकारक होकर निमित्त होता है । इसी प्रकार 'द्रव्य के पर्याय रूप में जीव के क्रोध रूप में पुद्गल के वर्णरस गंध और स्पर्श रूप में धर्म अधर्म और आकाश के अगुरुलघुगुण को वृद्धि हानि रूप में होने वाले परिणाम का उपकारक होकर निमित्त होता है । इसी प्रकार परिस्पन्दन रूप क्रिया का तथा ज्येष्ठता और कनिष्ठता के व्यवहार का निमित्त होता है ॥१॥
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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