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________________ दीपिकानिर्युक्तिश्च अ २ सू. १६ पुद्गललक्षणनिरूपणम् २३७ द्वीन्द्रियादयस्तु - रसनेन्द्रिययुक्ताः सन्तः स्वभाषात्वेन तान् पुद्गलान् परिणमय्याऽऽर्य -- म्लेच्छादिभाषावत् प्रतिनियता एव भाषाः व्यवहरन्ति । गुणदोषविचारणात्मक सम्प्रधारणसंज्ञायोगात् संज्ञिनः प्राणिन एव मनःपरिणामेन मनोवर्गणा योग्यान् अनन्तान् पुद्गलस्कन्धान् मन्तुकामः सन्तः सर्वाङ्गीणान् तान् गृह्णन्ति ततश्च -- तद्बलेन पुनर्गुणदोषविचारणाभावेन परिणमन्ते । ये पुनरेकेन्द्रियादयोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्यन्तास्तथाविधसंज्ञायुक्ता न भवति, ते नैव मन्यन्ते, मनःपर्याप्तिकारणाऽभावात्। यत् पुनस्तेषां द्वीन्द्रियाऽसंज्ञिप्रभृतीनां स्वनीडाभिसर्पणं भवति, कृमि--पिपीलिकादीनां तण्डुलकण - श्यामाकबीजादिसंग्रहणं मनोव्यापारं विनैव तदवग्रहपाटवादवसेयम्. । तादृशी च लब्धिरेव सा, न तु - ईहादिज्ञानभेदविचारयोग्यो द्वीन्द्रियादिः । अथ कथं तावद् जीवः औदारिकादियोग्यान् पुद्गलान् उपाददते ? कथं वा ते-उपादीयमानाः पुद्गलाः संहता एव तिष्ठन्ति परस्परं न विशीर्यन्ते : इति चेदुच्यते. क्रोधादिकषाययुक्तत्वात् जीवो ज्ञानावरणादिकर्मयोग्यान् सर्वात्मप्रदेशैनकर्मयोग्यांश्च पुद्ग लानुपादत्ते. उपादीयमानाश्च ते बन्धकारणात्संहता एव तिष्ठन्ति न विशीर्यन्ते इति । तथाचोक्तम्होती है, क्योंकि वह रसनेन्द्रिय के आश्रित है । इसी कारण पृथ्वोकाय से लेकर वनस्पतिकाय तक के एकेन्द्रिय जीव भाषावर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण ही नहीं करते हैं । इस प्रकार जिह्वा का अभाव होने से उनमें भाषा का भी अभाव है । द्वीन्द्रिय आदि जीव रसनेन्द्रिय से युक्त होकर भाषापुद्गलों को अपनी भाषा के रूप में परिणत करके आर्य म्लेच्छ आदि भाषाओं के समान नियत - नियत भाषाओं का ही व्यवहार करते हैं । गुण-दोष की विचारणा रूप सम्प्रधारणसंज्ञा के योग से संज्ञी प्राणी ही मनोयोग्य वर्गण के पुद्गलों को सर्वांग से ग्रहण करता है और उन्हें मन के रूप में परिणत करके उनसे गुण-दोष की विचारणा करता है । एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीव उस संप्रधारण संज्ञा से युक्त नहीं होते । मनःप्रर्याप्त का अभाव होने से उनमें मनन करने का सामर्थ्य नहीं होता । जो असंज्ञी द्वीन्द्रिय प्राणी अपने बिल की ओर जाते - रेंगते देखे जाते हैं या कृमि, पिपीलिका ( चिउंठी) आदि तन्दुल के कणों का अथवा श्यामाक के बीजों का संग्रह करते हैं, वे मन के बिना ही अवग्रह की पटुता के कारण ऐसा करते हैं । उनमें ऐसी ही लब्धि होती है, गुण-दोष की विशिष्ट विचारणा नहीं कर सकते । शंका - जीव औदारिक आदि शरीरों के योग्य पुद्गलों को किसी प्रकार ग्रहण करत है ? और ग्रहण किये हुए वे पुद्गल मिले हुए ही कैसे रहते हैं : बिखर क्यों नहीं जाने ? समाधान — जीव क्रोधादि कषाय से युक्त होकर ज्ञानावरण आदि कर्मों और नो
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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