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________________ तस्वारीसूत्र . मनश्चापि पौद्गलिक भवति. अनन्त पुद्गलस्कन्धमनोद्रव्यप्रायोग्योपचित्तमूर्तिमत्वात्, तच्चाऽपि पौद्गलिकं मनः पर्याप्तिभाजा पञ्चेन्द्रियाणामेव भवति । छद्मस्थानां श्रुत-ज्ञानावरणक्षयोपशमजननाय करणं तदवष्टम्भजनितञ्च गुणदोषादिविचारणात्मकं सम्प्रधारणं संज्ञाज्ञानं धारणाज्ञानञ्च यद् भवति तद्-भावमनोऽवगन्तव्यम्. । उक्तञ्च-"चित्तं चेतो योगोऽध्यवसानं चेतनापरिणामः । . भावो मन इति चेते छुपयोगार्था जगति शब्दाः ॥१॥ इति, प्रकृते तु-तथाविधभावमनोनिमित्तस्य पौद्गलिकस्य सर्वात्मप्रदेशवर्त्तिनो मनसोऽधिकारः प्रत्येतव्यः । एवम्-उच्छ्वासलक्षणः कोष्ठयो वायुः प्राणः पौद्गलिको व्यपदिश्यते. पुद्गलानां प्राणतया परिणमनात्. । एवं बाह्यो वायुरभ्यन्तरीक्रियमाणोऽपानसंज्ञकः पौद्गलिक उच्यते. तेषामेव पुद्गलानामपानतया परिणमनात् एतावपि-ओत्मनोऽनुग्राहको भवतः। एतयोश्च–प्राणापानयोः पौदगालेकयोरूपिद्रव्यपरिणामात् द्वारानुसारित्वाच्च मूर्तत्वमवगन्तव्यम्. । एवञ्च-द्वि-त्रि- चतुःपञ्चेन्द्रियाः पर्याप्तरसनेन्द्रियसम्बन्धा । भाषापरिणामयोग्यान् अनन्तप्रदेशान् पुद्गलस्कन्धान् काययोगेनोपाददते भाषापर्याप्तिकरणेन निसृजति । तथाच यत्रैव रसनेन्द्रिययोगस्तत्रैव भाषापयोप्ति भवति, रसनाश्रयत्वात्। तस्मात्-पृथिव्यादयो वनस्पतिपर्यन्ता एकेन्द्रिया भाषा त्वेन न पुद्गलान् गृह्णन्ति, तेषां रसनेन्द्रिययोगाभावात्--जिह्वारहितत्वात भाषाया अभावो बोध्यः । द्रव्यमन भी पौलिक है, वह अनन्तपुद्गलस्कंधों से, जो मनोवर्गणा के पुद्गल कहलाते हैं, अतः मूर्तिमान् है । मन पर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवों के ही होता है । छमस्थ जीवों को श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम उत्पन्न करने में कारण भूत, उसकी सहायता से उत्पन्न होने वाला, गुणदोष की विचारणास्वरूप, सम्प्रधारणसंज्ञा एवं धारणाज्ञान जिससे होता है, वह भावमन कहलाता है। कहा भी है - 'चित्त, चेतन, योग, अध्यवसान, चेतनापरिणाम और भावमन ये सब उपयोग वाचक शब्द हैं। मगर प्रकृत में इस भावमन के कारण, पौद्गलिक, समस्त आत्मप्रदेशों में रहे हुए द्रव्यमन को ही ग्रहण करना चाहिए । इसी प्रकार उच्छ्वास रूप कोष्ठवायु जो प्राण है, उसे भी पौद्गलिक, समझना चाहिए । क्योंकि पुद्गल ही प्राण रूपमें परिणत होते हैं। बाहरी वायुको भीतर ले जाना अपान कहलाता है । वह भी पौद्गलिक है, क्योंकि पुदगल ही अपान के रूप में परिणत होते हैं । यह प्राण और अपान भी आत्मा के अनुग्राहक होते हैं । यह दोनों रूपी द्रव्य के परिणाम हैं और द्वारों का अनुसरण करते हैं, अर्थात् नासिका के छिद्रों से घुसते-निकलते हैं, अतः इन्हें भी मूर्त समझना चाहिए । इस प्रकार द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय औरपंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव रसनेन्द्रिय के संयोग से भाषा परिणाम के योग्य अनन्तप्रदेशी स्कंधों को काययोग से ग्रहण करते हैं और भाषापर्याप्ति करण के द्वारा त्यागता है । जहाँ रसनेन्द्रिय होती है, वहीं भाषापर्याप्ति
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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