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________________ २१८ तत्त्वार्थसूत्रे दिरीत्या यावत् कश्चित्-सकललोकाकाशं व्या'यावतिष्ठते केवलिसमुद्घातापेक्षया समुद्घातकाले केवल्येव केवलं सर्वलोकाकाशं व्याप्य तिष्ठति नाऽन्यःकश्चिद् लोकमर्यादया, न पुनरलोकाकाशस्यैकमपि देशमक्रामतीति फलितम् । अथैकजीवस्य लोकाकाशतुल्यप्रदेशत्वात् कथं तस्य लोकाकाशाऽसंख्येयभागादिषु-अवगाहः सम्भवति तस्य सर्वलोकाकाशव्याप्त्या-एव भवितव्यमित्याशङ्कायामाह “पदीवोविव पएससंकोचविगासेहि-” प्रदीपस्येव जीवस्य प्रदेशानाम् संकोचविकासाभ्यां लोकाकाशस्याऽसंख्येयभागादिष्ववगाहः संजायते, यथा-प्रदीपाः तेजोऽवयवा यथावकाशाऽनुसारिणः सन्तः स्वल्पेऽवकाशे सङ्कोचमास्थाय तिष्ठन्ति । ___ महति चावकाशे विकाशं समाश्रयन्ति, एवं जीवस्यापि कस्यचित् प्राप्तप्रकृष्टसंकोचस्य लोकाकाशस्यैकस्मिन्नसंख्येयभागेऽवस्थानं भवति । कस्यचित्पुनः केवलिनः समुद्घातसमये प्राप्तोस्कृष्टविकाशस्य सर्वलोकेऽवगाहो भवति अन्या मध्यमावस्थाऽनेकभेदा भवति । एतेन-निर्णीताऽसंख्येयप्रदेशपरिमाणस्य जीवस्य कार्मणशरीरापादितौदारिकादिशरीरसम्बन्धाद अल्पबहुप्रदेशव्यापिताया मवस्थायां न कश्चिद् हेतुः प्रतिभाति, नहि तुल्यपरिमाणानां पटादीनामवगाहे किमपि वैषम्यं दृश्यते इत्याशङ्काऽपि समाहिता यस्मात्-किल जीवस्य प्रदेशानां परिमित आकाशखंड में अवगाहन करता है, कोई चार आकाशखंडों में व्याप्त होकर रहता है, इत्यादि रूप से कोई जीव सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त होकर रहता है । मगर संपूर्ण लोकाकाश को केवली ही केवलिसमुद्घात के समय में व्याप्त करते है; अन्य कोई जीव नहीं । वे भी लोक से बाहर अलोकाकाश के एक भी प्रदेश में नहीं जाते हैं। शंका-एक जीव के प्रदेश लोकाकाश के बराबर असंख्यात हैं; ऐसी स्थिति में लोक के असंख्यातवें भाग में उसका समावेश कैसे हो सकता है ? उसे तो सम्पूर्ण लोकाकाश में ही व्याप्त होना चाहिए। समाधान-जीव के प्रदेशों में दीपक के प्रकाश के समान संकोच-विस्तार होता है, अतएव लोकाकाश के असंख्यात भाग आदि में उसका समावेश हो जाता है । जैसे बड़े कमरे में दीपक रक्खा जाय तो उसका प्रकाश उस सम्पूर्ण कमरे में फैला हुआ रहता है और उसको यदि छोटे स्थान में रख दिया जाय तो प्रकाश सिकुड़ कर छोटे स्थान में समा जाता है, उसी प्रकार जीव के प्रदेश भी नाम कर्म द्वारा प्राप्त शरीर के अनुसार संकुचित और विस्तृत हो जाते हैं। कोई जीव लोक के एक असंख्यात भाग में समा जाता है और कोई केवलिसमुद्धात के समय विस्तार को प्राप्त होकर समस्त लोकाकाश को व्याप्त कर लेता है । इन दोनों के बीच मध्यम अवगाहना भी अनेक प्रकार की होती है । इस कथन से इस आशंका का भी समाधान हो जाता है कि जब जीव के असंख्यात प्रदेश हैं और औदारिक शरीर के साथ उसका संबंध है तो किसी का थोड़े प्रदेशों में और किसी का बहुत प्रदेशों में अवगाह हो, इस विषय में कोई हेतु नहीं है; समान परिमाण वाले
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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