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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० २ सू. १३ जीवानामवगाहनिरूपणम् २१७ एवं दोकाकाशस्य द्वि-त्रि-चतुराष्वप्यसंख्येयभागेषु सर्वलोकात्प्राक् अवगाहो भवलि नानाजीवानां पुनः सर्वलोक एवाऽवगाहो बोध्यः । ___अथ लोकाकाशस्यैकस्मिन्नसंख्येयभागे एको जीवोऽवतिष्ठते तदा-कथं द्रव्यप्रमाणेना-ऽनन्तानन्तो जीवराशिः सशरीरोऽवतिष्ठते इतिचेदुच्यते-लोकाकाशे सूक्ष्मबादरभेदादवस्थानमवगन्तव्यम् । तत्र-बादरास्तावत् सप्रतिघातशरीरा स्तिष्ठन्ति । सूक्ष्माः पुनः सशरीरा अपि सूक्ष्मभावादेव एकनिगोदजीवावगाहेऽपि प्रदेशे साधारणशरीरा अनन्तानन्ता स्तिष्ठन्ति, किन्तु-न ते परस्परं बादरैश्च व्याहता भवन्ति इति रीत्या तेषा मवगाहविरोधो न भवति । तत्र कदाचित्-एकस्मिन् लोकाकाशप्रदेशाऽसंख्येयभागे, कदाचिद्----द्वयोरसंख्येयभागयोः, कदाचित्-त्रि-असंख्येयभागेषु जीवानामवगाहो भवति । एतावता सर्वएव लोकाकाशप्रदेशा असंख्येयाः सन्ति । ते पुनरसंख्येपैरङ्गुलाऽसंख्येयभागप्रमाणैर्धिया विभज्यन्ते तत्रैकस्मिन्नसंख्येयप्रदेश आकाशखण्डे जघन्येनैकजीवस्याऽवगाहो भवति कार्मणशरीरानुसारित्वात् । कश्चित्पुनरसंख्येयप्रदेशद्वयरूपे आकाशखण्डेऽवगाह्य तिष्ठति, कश्चित्तु-असंख्येयप्रदेशत्रयरूपआकाशखण्डे, कश्चित्तावत् संख्येयप्रदेशचतुष्टयरूपे आकाशखण्डेऽवागाह्य तिष्ठति, इत्या जीवों का अवगाह लोकाकाश के असंख्यात भाग आदि में होता है तात्पर्य यह है कि कदाचित् एक जीव का अवगाह लोकाकाश के असंख्यात भागों में से एक भाग में होता है, किसी का दो या तीन आदि भागों में होता है। नाना जीवों का अवगाह सम्पूर्ण लोक में है। कहा जा सकता है कि यदि लोकाकाश के असंख्यात वें भाग में एक ही जीव अवगाहन कर लेता है तो अनन्तानन्तसंख्यक जीव शरीरसहित किस प्रकार इस लोक में समा सकते हैं ? इस का उत्तर यह है कि लोकाकाश में सूक्ष्म और बादर का भेद होने से अवगाहना असंभव नहीं है, जो जीव बादर हैं उनके शरीर प्रतिघातयुक्त होते हैं किन्तु जो सूक्ष्म हैं वे शरीरसहित होने पर भी सूक्ष्म होने के कारण एक ही आकाशप्रदेश में अनन्तानन्त समा जाते हैं । न वे परस्पर एक दूसरे के अवस्थान में बाधा पहुंचाते हैं और न बादर जीवों के अवस्थान में रुकावट डालते हैं, इस प्रकार लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशों में अनन्तानन्त जीवों की अवगाहना होना विरुद्ध नहीं है । इस प्रकार कदाचित् लोकाकाश के एक असंख्यातवें भाग में, कदाचित् दो असंख्यात भागों में और कदाचित् तीन असंख्यात भागों में जीवों का अवगाह होता है । इस प्रकार सब लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश होते हैं । वे असंख्यातअंगुलासंख्येय भाग प्रमाण प्रदेशों से, कल्पना द्वारा विभक्त होते हैं। उनमें से जघन्य एक जीव का असंख्यातप्रदेश वाले एक आकाशखण्ड में अवगाह होता है, कार्मण शरीर के अनुसारी होने से कोई जीव दो असंख्यातप्रदेश परिमित आकाशखंड में अवगाहन करता है, कोई जीव तीन असंख्यात प्रदेश ૨૮
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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