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________________ २१२ तत्त्वार्थनियुक्तिः --पूर्व लोकाकाशे धर्मादीनामवगाहो भवतीत्युक्तम् तत्राऽवध्रियमाणानामवस्थानभेदसम्भवाद् विशेषप्रतिपत्त्यर्थमाह- "धम्माधम्माणं कसिणे लोगागासे-" इति । धर्मास्तिकायाऽधर्मास्तिकाययोः कृत्स्ने. संपूर्णे लोकाकाशेऽवगाहः प्रवेशो भवति । न तु--लोकाका शस्यैकदेशेऽवगाहो भवतीति । _ 'तत्र--कृत्स्नपदोपादनेन सम्पूर्णदेशव्याप्तिः सूच्यते । तथाच-यथा गृहस्यैकदेशे कस्मिश्चिकोणादौ घटोऽवस्थितो भवति, न तथा-लोकाकाशे धर्माऽधर्मयोरवगाहो भवति । अपितुकृत्स्ने सम्पूर्णे लोकाकाशे “तिलेषु तैलवत् " "दुग्धेषु घृतवत्-" सर्वावयव्याप्त्याऽवगाहो भवति । एवञ्चा -ऽवगाहनशक्तियोगाद् धर्माऽधर्मयोः सम्पूर्णे लोकाकाशे परस्परप्रदेशप्रवेशव्याघाताऽभावोऽवगन्तव्यः । "एतावता--धर्माऽधर्मयोः सर्वत्र लोकाकाशेऽयुतसिद्धावपि चन्द्रमण्डलाऽऽधेयचन्द्रिकावत् अवगाहो भवति, न ततः परतः चेतनावत्--शरीरे एवोपकारदर्शनात् बहिरदर्शनाच्च तन्मात्रवृत्तित्वं निश्चीयते तस्माद्-दुग्धोदकवत् परस्परावगाहपरिणामेन धर्माधर्मयोः कृत्स्ने लोकाकाशे व्यवस्थानं के लिए यहाँ कहा गया है कि धर्म और अधर्मद्रव्य का लोकाकाश में अवगाह सम्पूर्ण रूप से तिल में तेल के समान है, एक देश से नहीं ॥११॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-धर्मादि द्रव्यों का लोकाकाश में अवगाह है, यह पहले कहा जा चुका है, किन्तु वह अवगाह किस प्रकार का है, यह बतलाने के लिए कहा है-धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का संपूर्ण लोकाकाश में अवगाह है, लोकाकाश के किसी एक देश में नहीं। सूत्र में 'कृत्स्न' पद का प्रयोग करके धर्म-अधर्मद्रव्य का संपूर्ण देश में व्याप्त होना सूचित किया गया है। इससे यह स्पष्ट हो गया कि जैसे घर के किसी एक कोने में घर रहता है, उसप्रकार से लोकाकाश में धर्म और अधर्म का अवगाह नहीं है। बल्की तिलों में तेल के समान और दूध में घी के समान सम्पूर्ण लोकाकाश में अवगाह है। इस प्रकार अवगाहनशक्ति के कारण समस्त लोकाकाश में धर्म और अधर्म द्रव्य प्रदेशों का परस्पर व्याघातरहित अवस्थान समझना चाहिये । तात्पर्य यह है कि लोकाकाश का जिस एक प्रदेश है वही धर्म द्रव्य का भी एक प्रदेश है और वहीं अधर्मद्रव्य का भी प्रदेश है। ये सब प्रदेश व्याघात के विना ही स्थित हैं- कोई किसी के अवस्थान में रुकावट नहीं डालता । इस प्रकार लोकाकाश में सर्वत्र धर्म अधर्म का अवगाह है, उससे आगे नहीं है। जैसे चेतना का कार्य शरीर में ही देखा जाता है, बाहर नहीं, इस कारण चेतना शरीरव्यापी ही है, इसी प्रकार धर्म-अधर्म का उपकार लोकाकाश में ही देखा जाता है, बाहर नहो, अतः वे द्रव्य भी बाहरनहीं हैं ।। ____ फलितार्थ यह है कि धर्म और अधर्मद्रव्य दूध और पानी की तरह परस्पर अवगाहन करके समस्त लोकाकाश में व्याप्त हैं, ऐसा नहीं की तालाब में पुरुष के समान या घर में घर
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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