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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ. २ सू० १० धर्मादीनामवगाहादि प्रदेशनिरूपणम् २११ .. तदनन्तरं तत्रव चोक्तम् व्याख्याप्रज्ञाप्तौर-शतके १ ०-उद्देशके–अलोगागासे णं भंते ! किं जीवा पुच्छा ? तहचेव, गोयमा ! नो जीवा जाव नो अजीवप्पएसा एगं अजीवदव्वदेसे अगुरु य लहुए अणंतेहिं, अगुरुलहुयगुणेहिं संजुत्ते सव्वागासे अणंतभागूणे-"इति । अलोकाकाशः खलु भदन्त ! किं जीवाः-? पृच्छा, तथाचैव, गौतम ! नो जीवा यावत्नो अजीवप्रदेशाः एकोऽजीवप्रदेशः अगुरुकलघुकः अनन्तैः अगुरुकलघुकगुणैः संयुक्तः सर्वाकाशः. अनन्तभागोन इति । एवम्-उत्तराध्ययनेऽपि २८-अध्याये ७--गाथायामुक्तम् "धम्मो अधम्मो आगासं कालो पुग्गलजंतवो । एस लोगोत्ति पण्णत्तो जिणेहिं वरदंसिहि" ॥ १॥ इति "धर्मोऽधर्मआकाशः कालः पुद्गलजन्तवः । एष लोकोऽस्ति प्रज्ञप्तो जिनैर्वरदर्शिभिः" इति ॥१०॥ मूलसूत्रम् 'धम्माधम्माणं कसिणे लोगागासे-'" ॥११॥ छाया-"धर्माऽधर्मयोः कृत्स्ने लोकाकाशे-" ॥११॥ तत्वार्थदीपिका--पूर्वसूत्रे धर्मादीनां द्रव्याणां लोकाकाशेऽवकाशः प्रवेशरूपो भवतीत्युक्तम् तत्र किं दुग्धोदक-विषरुधिरादिवत् सर्वात्मना सर्वलोकाकाशप्रदेशव्याप्त्या धर्मादीनां भवति-? आहोस्वित् हदे त्रसजीव-पुरुषादिवत् , एकदेशात्मनां तेषामवगाहो भवाति शङ्कां निराकर्तुमाह'धम्माधम्माणं कसिणे लोगागासे-,'इति । धमाँऽधर्मयोर्द्रव्ययोः कृत्स्ने सम्पूर्णे लोकाकाशे" तिलेषु तैलमिवाऽवगाहः प्रवेशो भवति न तु----एकदेशेनैवाऽवगाहो भवतीति भावः ॥११॥ तत्पश्चात् उसी भगवतीसूत्र के दूसरे शतक के दसवें उद्देशक में कहा है भगवन् ! अलोकाकाश क्या जीव हैं ? इत्यादि प्रश्न पूर्ववत् करना । उसका उत्तर भी उसी प्रकार है कि-गौतम ! अलोकाकाश जीव नहीं हैं यावत् अजीवप्रदेश नहीं है, अजीवद्रव्य (आकाश) का एक देश है, वह अगुरुलघु है, अनन्त अगुरुलघु गुणों से संयुक्त है, सर्वाकाश से अनन्तभाग न्यून है। उत्तराध्ययन के २८ वे अध्ययन की ७ वी गाथा में कहा है-'सर्वदर्शी जिनेद्रों ने धर्म, अधर्म, आकाश, काल पुद्गल और जीव को लोक कहा है जहाँ ये द्रव्य नहीं है सिर्फ आकाश का देश है उसे अलोक कडा है ॥१०॥ मूलसूत्रार्थ--"धम्माधम्माणं कसिणे" इत्यादि । सूत्र ११ धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय की अवगाहना सम्पूर्ण लोकाकाश में है ॥११॥ तत्त्वार्थदीपिका—पूर्वसूत्र में बतलाया गया है कि लोकाकाश में धर्म आदि द्रव्यों का प्रदेशरूप अवगाह है किन्तु वह अवगाह दूध और पानी के समान और विष और रुधिर के समान ममस्त लोकाकाश के सब प्रदेशों को व्याप्त करके होता है अथवा तालाब में त्रसजीव या पुरुष आदि के समान एक देश से होता है, इस आशंका का, समाधान करने
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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