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________________ दीपिकनियुक्तिश्च अ० २ सू. ८ मूर्तपुद्गलानां प्रदेशपरिमाणनिरूपणम् २०३ तत्वार्थदीपिका-पुद्गलानाम्. पूरणाद्गलनाच्च पूरणंगलनपरिणतिलब्धसंज्ञकान्परमाणुप्रभृत्यचित्तमहास्कन्धपर्यवसानानां विचित्ररूपरसादिपरिणामशालिनां पुद्गलानां प्रदेशाः पूर्बो. क्तस्वरूपाः यथासंभवं संख्येया असंख्येया अनन्ताश्च भवन्ति, तत्र-संख्येयपरमाणूपचितः पुद्गलस्कन्धः संख्येयप्रदेशः ___ एवम्-असंख्येयपरमाणूपचितः पुद्गलस्कन्धोऽसंख्येयप्रदेशः, अनन्तपरमाणूंपचितः पुद्गलस्कन्धः-अनन्तप्रदेशोऽवगन्तव्यः किन्तु-परमाणूनां निरन्तरतया प्रदेशत्वाऽभावेन तेषां संख्येया असंख्येया बा अनन्ता वा प्रदेशा न भवन्ति. ॥८॥ तत्वार्थनियुक्ति:--"पूर्वसूत्रेऽमूर्तानां धर्मादीनां प्रदेशपरिमाणं प्रतिपादितम् , संम्प्रतिमूर्तानां पुद्गलानां प्रदेशपरिमाणं प्रतिपादयितुमाह---"पोग्गलाणं संखेज्जा असंखेज्जा अणंता य णो परमाणूण-" इति । पुद्गलानां द्वयणुकादिमहास्कन्धपर्यन्तानां द्रव्यपुद्गलानां यथायोग्यं संख्येया असंख्येया अनन्ताश्च प्रदेशा भवन्ति. । तत्र-कस्यचित् द्वयणुकादेः पुद्गलद्रव्यस्य संख्येयाः प्रदेशा भवन्ति.। कस्यचित्पुनः पुद्गलद्रव्यस्याऽसंख्येयाः, कस्यचिदनन्ताः प्रदेशा भवन्ति. अथैवं कस्यचित् पुद्गलद्रव्यस्याऽनन्तानन्तप्रदेशा अपि वक्तव्याः इतिचेन्न अनन्तसामान्यात्-अनन्तानन्तस्यापि ग्रहणसम्भवात् । मूलसूत्रार्थ-'पोग्गलाणं संखेज्जा' इत्यादि ॥८॥ पुद्गलों के संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश होते हैं, किन्तु परमाणुओं के प्रदेश नहीं होते ॥८॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूरण और गलन स्वभाव वाले, परमाणु से लगाकर अचित्त महास्कंध तक के, विविध प्रकार के रूप रस आदि से युक्त पुद्गलों के पूर्वोक्त स्वरूप वाले प्रदेश यथासंभव संख्यात, असंख्यात, और अनन्त, होते हैं। ज. पुद्गल स्कंध संख्यात परमाणुओं के मिलने से बना है वह संख्यातप्रदेशी कहलाता है, जो असंख्यात परमाणुओं के संयोग से बना है वह असंख्यात प्रदेशी कहा जाता है और जिस पुद्गलस्कंध की उत्पत्ति अनन्त प्रदेशों से हुई है, वह अनन्त प्रदेशी कहलाता है । किन्तु परमाणु में प्रदेश होते नहीं हैं, अतएव व हन संख्यातप्रदेशी है, न असंख्यात प्रदेशी है और न अनन्त प्रदेशी ही है ॥८॥ ___ तत्त्वार्थनियुक्ति-पूर्वसूत्र में धर्म आदि अमूर्त द्रव्यो के प्रदेशों का परिमाण बतलाया जा चुका है, अब मूः पुद्गलो के प्रदेशों का परिमाण बतलाने के लिए कहते हैं द्वयणुक से लगाकर महास्कंध तक के पुद्गलो में यथ योग्य संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश होते हैं। किसी किसी द्वयणुक आदि पुद्गलस्कंध के संख्यात प्रदेश होते हैं, किसी-किसी पुद्गल के असंख्यात प्रदेश होते हैं और किसी-किसी के अमन्त प्रदेश होते हैं । यहाँ शंका हो सकती है कि किसी-किसी पुद्गल के अनन्तानन्त प्रदेश भी होते हैं तो उनका भी अलग विधान करना
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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