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________________ तत्वार्थ सूत्रे अथवा - sलोकाकाशेऽपि अवगाहदानशक्तिरस्त्येव, किन्तु तत्र जीवपुद्गलाद्यवगाहकाभावात् सा शक्तिर्नाऽभिव्यज्यते । यदि तत्रापि किञ्चिदवगाहकं भवेत् तदा - तदवगाहपरिणामेन व्यापारेव्यापृतं स्यात्. किन्तु न किमपि तत्रास्ति तस्मात् - अलोकाकाशोऽपि अवगाहदानशक्तियुक्तत्वादाकाशः सम्भवति इति । २०२ अथवा-ऽलोकाकाशे आकाशवदाकाशइत्यौपचारिकः आकाशप्रयोगः शुषिरदर्शनात् इति । अथाकाशस्य नित्यतया कथमुत्पादव्ययध्रौव्यरूपं वस्तुलक्षणं तत्र संघटते इतिचेदत्रोच्यते विस्रसापरिणामेनोत्पादादित्रयसत्वात् । प्रयोगपरिणामेन च जीवपुद्गलानामुत्पादादित्रयसत्वात्. उक्तश्च प्रज्ञापनायां ३ पदे ४१ सूत्रे - -- “आगासत्थिकाए पएस याए अनंतगुणे -- " इति . आकाशास्तिकायः प्रदेशार्थतयाऽनन्तगुण इति. ॥७॥ मूलसूत्रम् -- "पोग्गलाणं संखेज्जा - असंखेज्जा अनंता य नो परमाणूणं- " छाया - 'पुद्गलानां संख्येया असंख्येया अनन्ताश्च नो परमाणूनाम् - " ॥ ८ ॥ होती । यदि वहाँ कोई अथवा - अलोकाकाश में भी अवगाह देने की शक्ति तो विद्यमान ही है, किन्तु वहाँ जीव पुद्गल आदि कोई अवगाहक नहीं होने से वह शक्ति प्रकट नहीं अवगाहक होता तो वह भी अवगाह परिणाम से होता अर्थात् स्थान अवगाहक है ही नहीं । इस प्रकार अलोकाकाश भी अवगाह देने की के कारण आकाश ही कहा जाता है । देता, किन्तु वहाँ कोई शक्ति से युक्त होने अथवा आलोकाकाश के समान होने के कारण उपचार से आकाश कहलाता है, क्योंकि वहाँ पोलार दिखलाई देती है । पर्य यह है कि लोकाकाश और अलोकाकाश कोई भिन्न-भिन्न दो द्रव्य नहीं हैं। आकाश एक अखण्ड द्रव्य है जो सर्वव्यापी है । मगर उसके जिस भाग में धर्मादि द्रव्य - अर्थात् पञ्चास्तिकाय अवस्थित हैं, वह भाग लोक और जिस भाग में धर्मादि द्रव्य नहीं हैं वह आलोकाकाश - कहलाता है | इस प्रकार आकाश के जो दो भेद किये गये हैं, वे पर निमित्तक हैं, स्वनिमित्तक नहीं है । आकाश अपने स्वरूप से एक और अखण्ड है । शंका- नित्य होने के कारण आकाश में उत्पाद, व्यय और धौव्य कसे घटीत हो सकते हैं? यह लक्षण न होने से बह वस्तु भी नहीं हो सकता, क्यों कि जिसमें उत्पाद आदि हों उसी को वस्तु कहा जा सकता है। समाधान –आकाश में स्वाभाविक परिणम न होता है, अतएव उसमें भी उत्पाद व्यय और धौ घटित होते हैं । जीवों और पुद्गलों में प्रयोगपरिणाम से भी उत्पाद आदि होते हैं । प्रज्ञापना के तीसरे पद के ४१ वें सूत्र में कहा है- 'आकाशास्तिकाय' प्रदेशों की अपेक्षा से अनन्तगुणा है ' ॥७॥
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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