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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ०१ सू. ३६ कार्मणशरीरनिरूपणम् १५३ तत्त्वार्थनियुक्ति-कार्मणं च शरीरमेषां सर्वेषामौदारिकदीनां शरीराणां निबन्धनं कारणं बीजं वर्तते सकलशक्त्याधारत्वात् चित्रकर्मणः कुड्यवत्. भवप्रपञ्चबीजभूतस्य कार्मणशरीरस्य समूलच्छेदे तु प्रक्षालितसकलल्मषाः सन्तो न पुनः शरीराणि समाश्रयन्ति. एवंविघं चेदं कार्मणं ज्ञानावरणादिभ्यः कर्मभ्यो जायते न पुनरन्यत् तस्य कारणमस्ति तथा च–ज्ञानावरणादिकं कर्म तदात्मकत्वात् कार्मणस्य कारणम् अन्येषां चौदारिकादिशरीराणाम् ।। आदित्यप्रकाशवत् न स्वात्मनि क्रियाविरोधः सम्मवति यथा-सविता स्वमण्डलं प्रकाशयति अन्यानि च घटपटादीनी प्रकाशयन्ति न हि स्वेतरः कश्चित्पदार्थः सवितृमण्डलस्य प्रकाशको भवति अनवस्थाप्रसक्तेः एवं ज्ञानावरणादिकर्मव्यतिरिक्तं न कार्मणस्य कारणं सम्भवति, कार्मणस्य कर्ममात्रतया कर्मस्वभाववत्वात् इति भावः ॥३६॥ मूलसूत्रम्--"वेए तिविहे-" छाया-"वेदस्त्रिविधः-" तत्वार्थदीपिका-पूर्व तावद्- औदारिकादिपञ्चशरीराणि प्ररूपितानि सम्प्रति-तानि शरीराणि यथायोग्यं धारयतां जीवानां केषां चित् पुंवेदः केषांचिद् नपुंसकवेदः केषाञ्चिन् तत्त्वार्थनियुक्ति– कार्मण शरीर औदारिक आदि सब शरीरों का कारण है । जैसे चित्रकर्म का आधार दीवार होती है, उसी प्रकार यह कर्म सकल शक्ति का आधार है। भवपरम्परा के कारणभूत इस कर्म का जब समूल उच्छेद हो जाता है तो समस्त कल्मष धुल जाते हैं और जीव फिर किसी भी शरीर को धारण नहीं करते । यह कार्मण शरीर ज्ञानावरणीय आदि कर्मों से उत्पन्न होता है। इसका अन्य कोई कारण नहीं है । ज्ञानावरण आदि कर्म, कार्मण शरीर रूप होने से कार्मण शरीर के कारण हैं । उनमें सूर्य के प्रकाश के समान अपने आपमें क्रिया का विरोध नहीं है । जैसे सूर्य अपने मण्डल को भी प्रकाशित करता है और घट पट आदि अन्य पदार्थों को भी प्रकाशित करता है—सूर्यमण्डल को प्रकाशित करने के लिए किसी अन्य प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती । यदि सूर्यमण्डल को प्रकाशित करने के लिए अन्य प्रकाश की आवश्यकता मानी जाय तो अनवस्थादोष का प्रसंग आता है, अर्थात् उस प्रकाश को प्रकाशित करने के लिए भी अन्य प्रकाश की आवश्यकता माननी पड़ेगी और उसके लिए भी अन्य प्रकाश की । इस प्रकार मानते-मानते कहीं विराम ही नहीं होगा। इसी प्रकार ज्ञानावरण आदि कमों से भिन्न कार्मण शरीर का कोई कारण नहीं । कार्मण शरीर कर्मस्वरूप ही है, कर्म-समुदाय रूप ही है ॥३६।। मूलसूत्रार्थ—"वेए तिविहे" वेद तीन प्रकार का है ॥३७॥ तत्त्वार्थदीपिका---पहले औदारिक आदि पाँच शरीरों की प्ररूपणा की गई है, अब यह
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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