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________________ दीपिका नियुक्तिश्च अ०१ सू. २८ जीवस्योत्पादनिरूपणम् १०७ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्व तावत् सविग्रहयाऽविग्रहया वा वक्ररूपया ऋजुरूपया गत्या उत्पत्तिक्षेत्रं प्राप्तः सन् पूर्वोपात्त-औदारिकवैक्रियशरीरनाशे सति जीवः खलूत्पद्यत इत्युक्तम् । सम्प्रति कीदृशस्योत्पादो भवतीति प्ररूपयितुमाह __ "तिविहं जम्मं गब्भ-समुच्छिणो-चवाया-” इति । जीवानां त्रिविधं जन्म भवति । तद्यथा -- गर्भः-१ सम्मूर्च्छनम्-२ उपपातश्चे-३ ति । तत्र-स्त्रीयोनौ एकत्रीभूतयोः शुक्रशोणितयोर्जीवो मातृभक्षिताहाररसपरिपोषापेक्षं यद्ग्रहणं करोति, तद् गर्भजन्म, गर्भरूपं जन्मगर्भजन्मेत्युच्यते । आगन्तुकशुकशोणितग्रहणात् स्त्रीयोनेः शुक्रशोणितमात्रस्वरूपत्वाभावात् , जन्मतु-शरीरद्वयसम्बन्धितया आत्मनः परिणतिलक्षणमवसेयम् ।। सम्मूर्छामात्र सम्मूछेनम् , सम्यग्वृद्धिः । यस्मिन् स्थाने जीवो जनिष्यते तत्रत्य पुद्गलान् उपमृद्य संगृह्य च शरीरं कुर्वन् शुक्रशोणितं विनैव सम्मूर्च्छनं जन्म लभते. तदेव-तथाविधं सम्मूर्च्छनं जन्मेत्युच्यते । त्रिषु लोकेषु ऊर्ध्वमस्तिर्यक च शरीरस्य समन्तात् मूर्च्छनं-वर्द्धनम् अवयवप्रकल्पनं सम्मूर्च्छनम् । गर्भस्तु-स्त्रिया उदरे शुक्र-शोणितयोमिश्रणरूपः । तथाच-सम्मूर्च्छनजन्मउत्पत्तिक्षेत्रवर्तिपुद्गलसमूहमगृहीत्वा नोद्भवति । तत्र-बाह्यपुद्गलोपमर्दनलक्षणं सम्मूर्छनजन्मकाष्ठादिषु कृम्यादीनां प्रतीतम् । काष्ठत्वचा पक्वफलादिषु उत्पद्यमानाः कृम्यादयो जन्तवस्तानेव काष्ठत्वक् तत्त्वार्थदीपिका—पहले कहा जा चुका है कि संसारी जीव पूर्वगृहीत औदारिक अथवा वैक्रिय शरीर का त्याग करके सविग्रह अथवा अविग्रह गति से अपने उत्पत्तिक्षेत्र में पहुँचता है । अब यह दिखलाते हैं कि उसका उत्पाद किस प्रकार होता है ! . जीवों का जन्म तीन प्रकार का होता है-(१) गर्म (२) संमूर्छन और (३) उपपात । स्त्री की योनि में एकत्र हुए शुक्र और शोणित का जीव माता के द्वारा किये गये आहार के रस को परिपोषण की अपेक्षा जो ग्रहण करता है, वह गर्भजन्म कहलाता है । गर्भ रूप जन्म को गर्भजन्म कहते हैं। स्त्री की योनि आगन्तुक शुक्र और शोणित को ग्रहण करती है, अतः वह मात्र शुक्र शोणित रूप नहीं है । जन्म दोनों शरीरों से संबन्ध रखने वाला होने से आत्मा का परिणमन विशेष समझना चाहिए। . सम्यक् प्रकार से वृद्धि होने को सम्मूर्छा अथवा सम्मूर्च्छन कहते हैं । जिस जगह जीव जन्म लेने वाला है, वहाँ के पुद्गलों को संग्रह करके शरीर बनाता हुआ शुक्र और शोणित के बिना ही वृद्धि पाना संमूर्च्छन जन्म है
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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