SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विकनियुक्तिश्च अ०१ सू. २७ विग्रहगतिसम्पन्नजीवस्यनाहारकत्वम् १०५ सर्वकालं सम्भवति । जलवर्षणसमये समादीतनाराचप्रक्षेपवत् , तयथा-जलधारासन्निपाताऽऽपादितसामर्थे मेधे वर्षति नाराचद्रव्यं ज्याहस्तविप्रयोगाहितवेगमग्निज्वालाकलापादीप्तमुदकपुद्गलग्रहणं कुर्वदेव गच्छति । एवमयमन्तरात्मा कार्मणेन शरीरण कर्मोष्णत्वात् पुद्गलग्रहणं कुर्वन् अविच्छिन्नमामाऽमि जन्मनेऽभिधावति, इति । न खलु एवं रूपस्य पुद्गलादानस्य प्रतिषेधः प्रकृतेऽनेन सूत्रेण क्रियते, अपितु औदारिक-वैक्रियशरीरद्वयस्य परिपोषहेतुकाऽऽहारकस्य प्रतिषेधः क्रियते, तस्मादन्तर्गतौ एक वा समय, समयद्वयं वा, समयत्रयं वाऽनाहारको भवति । एक-द्वि-त्रिसमयव्यतिरिक्तः शेषकालमविच्छेदेनाऽऽहारमभ्यवहरति । उत्पत्तौ प्रथमसमयादारभ्यान्तर्मुर्तिक ओज आहारो भवति । पश्चात्-आभवक्षयं लोमाहारः । कवलाहारस्तुओज आहार (२) लोमाहार (३) प्रक्षेपाहार । ओजआहार अपर्याप्तक अवस्था में कार्मण शरीर के द्वारा किया जाता है। जैसे अग्नि में तपे हुए. पात्र को जल में डाल दिया जाय तो वह संपूर्ण . अवयवों से जल ग्रहण करता है, उसी प्रकार जीव अपनी आपत्ति के प्रथम समय में-जन्मस्थान में पहुँचने के पहले समय में समस्त आत्मप्रदेशों के द्वारा पुद्गलों का ग्रहण करता है । अथवा वह जैसे कढाई में तप्त तैल या घृत में पुवा डाला जाता है तो वह सर्वाग से तेल तथा घृत को ग्रहण करता है, यह पुद्गलों का ग्रहण करना ही ओजआहार कहलाता है । ओज आहार अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त ही होता है। पर्याप्त अवस्था से लेकर भव के क्षय पर्यन्त त्वचा के द्वारा पुद्गलों को ग्रहण करना लोमाहार है । प्रक्षेपाहार का अर्थ है कवलाहार अर्थात् ओदन आदि के कवलों को खाना, पीना आदि । विग्रहगति में इन तीनों प्रकार के आहारों का निषेध किया गया है । ये तीनों आहार भव-अवस्था में ही स्वीकार किये गये हैं। विग्रहगति के प्रथम समय में जीव त्यागे जाने वाले देश में और अन्तिम समय में जन्मदेश में रहने के कारण आहारक होता है, क्योंकि उस समय वह त्यागे जाने वाले एवं ग्रहण किये आने वाले पूर्व तथा उत्तर शरीर से सम्बद्ध होता है । __योग और कषाय के निमित्त से होने वाला कर्मपुद्गलों का ग्रहण तो विग्रहगति में भी प्रत्येक स्थान पर होता ही रहता है । जैसे जल की वर्षा के समय जलते बाण को छोड़ा जाय तो वह जल को ग्रहण करता हुआ जाता है उसी प्रकार संसारी जीव कर्मों से उष्ण होने के कारण कार्मण शरीर के द्वारा निरन्तर कर्मपुद्गलों को ग्रहण करता हुआ ही आगामी जन्म के
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy