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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ७१२ तत्त्वनिर्णयप्रासादपरिणामिक प्राधान्यतासे, परमखभाव, द्रव्योंमें है. परिणामका स्वरूप ऐसा है. सर्वथा न गमो यस्मात् सर्वथा न च आगमः॥ परिणामः प्रमासिद्ध इष्टश्च खलु पंडितैः ॥ १॥ भाषार्थः-सर्वथा जिससे जाना न होवे, और सर्वथा आगमन, न होवे, सो परिणाम, प्रमाणसिद्ध है; ऐसा पंडितोंको इष्ट है. जैसे सुव के कटक कुंडल कंकणादि. । ११ । . शुद्धाशुद्धपरमभावग्राहक नयके मतस, चेतनस्वभाव जीवको; और अस. द्भूतव्यवहारनयसें, ज्ञानावरणादि कर्म, तथा नोकर्म मनवचनकायापणा, इनको चेतन कहिये. चेतनसंयोगकृतपर्याय वहां है, इसवास्ते 'इदं शरीरमावश्यकं जानाति' यह शरीर आवश्यक जानता है, इत्यादि व्यवहार इसीवास्ते होता है. घृतं दहतीतिवत्. । १२ । परमभावग्राहकनयके मतसें कर्म नोकर्मको, अचेतनस्वभाव; यथा घृत अनुष्णस्वभाव. और असद्भूतव्यवहारनयसें जीवको भी, अचेतनस्वभाव. इसीवास्ते ' जडोयमचेतनोयम् ' इत्यादि व्यवहार है.। १३ । परमभावग्राहकनयके मतसें कर्म नोकर्मको मूर्तस्वभाव असतव्यवहारनयसें जीवको भी मूर्तस्वभाव; इसीवास्ते 'अयमात्मा दृश्यते' यह आत्मा दिखता है, 'अमुमात्मानं पश्यामि' इस आत्माको में देखता हूं, इत्यादि व्यवहार है. तथा 'रक्तौ च पद्मप्रभवासुपूज्यौ' इत्यादि वचन भी इसी स्वभावसे है. । १४। परमभावग्राहकनयसें, पुद्गलवर्जके अन्योंको अमूर्त स्वभाव; और पुद्गलको उपचारसें भी, अमूर्तस्वभाव नही, तो एकवीसमा भाव नही होगा; तव तो, 'एकविंशतिभावाः स्युर्जीवपुद्गलयोर्मताः' इस वचनके व्याघातसें अपसिद्धांत होवेगा, तिसको दूर करनेवास्ते, असद्भूतव्यवहारनयसें परोक्ष, पुद्गलपरमाणु है, तिसको अमूर्त कहिये. व्यवहारिकप्रत्यक्षके अगोचरपणा, सोही, परमाणुका अमूर्तपणा, अंगिकार करिये हैं. For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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