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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (५०) ष्यका जन्म, वारंवार मिलना मुश्किल है. इस जूठे हठको छोडदे.” इत्यादि अनेक प्रकारकी हित शिक्षा, श्रीआत्मारामजीने अमरसींघजीको दी. परंतु अमरसिंघजीको इस हित शिक्षाने कुछ भी फायदा नहीं किया. क्योंकि-- अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः॥ ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि तं नरं न रंजयति॥१॥ भावार्थः-अनजानको समझाना सुखाला है, इससे भी जो सखस अच्छे बुरेको समझताहै, और हठी कदाग्रही नहीं है, ऐसे पंडितको समझाना अतीव सुकर (सुखाला) है. परंतु जो प्राणी, ज्ञानके दो अक्षर आनेसें दुर्विदग्ध होगया, ( अर्थात् थोडासा पढके अपने आपको बृहस्पति तुल्य मानने लग गया, हट कदाग्रहसें प्रीति करने लग गया) ऐसे सखसको तो ब्रह्मा भी रंजित नही कर सकताहै. अर्थात् पूर्वोक्त लक्षणोंवाले पंडितायते (पंडिताभिमानी) को तो ब्रह्मा भी नहीं समझा सकताहै तो औरका तो क्याही कहना?-गुस्सा करके अमरसिंघजी पराङ्मुख होगये. तब श्रीआत्मारामजीने भी विचारा कि उपदेशो हि मूर्खाणां, प्रकोपाय न शांतये ॥ पयःपानं भुजंगानां, केवलं विषवर्द्धनम् ॥१॥ भावार्थ:--मूर्योको उपदेश देना क्रोध बढाने के वास्ते है, परंतु शांतिके वास्ते नहींहै, जैसे कि, सापको दूध पिलाना, केवल विषका बढानाहै. इस वास्ते इनको ज्यादा कहना, नुकशान की है, ऐसा विचारके श्रीआत्मारामजी भी अपने स्थानपर चले गये. कितनेक दिन पीछे अमरसिंघजी तो पट्टीको विहार करगये; और श्रीआत्मारामजी विश्नचंदजी आदि अमृतसरसें विहार करके जालंधर शहरमें आये. और "खरायतीमल्ल (श्रीआत्मारामजीका गुरुभाई) और "गणेशीलाल (शिष्य ) येह दो साधु, कितनेक दिन पहिलेही हुशीआरपुर चले गये थे. वहां इन दोनोंका आपसमें कलह हुआ, इससे गणेशीलाल मुहपत्तीका डोरा तोडकर, श्रीआत्मारामजीको विना मालुम किये, हुशीआरपुरसें विहार करके शहर गुजरांवालामें "श्रीबुद्धिविजयजी (बूटेरायजी) संवेगी तपगच्छके साधूके पास चला गया. __* तसबीर देखो. इन महात्माका जन्म, देशपंजाबमें लुधीआना शहरके तरफ बलोलपुरसें सात आठ कोश दक्षिणके तरफ दूलुवां गाममें टेकसिंध नामा कुटुंबकि (कुणबी-पटेल) की कर्मों नामा स्त्रीकी कूखसें विक्रम संवत १८६३ में हुआथा. माताकी आज्ञा लेके विक्रम संवत् १८८८ में इनोंने संसार छोडके, मलुकचंदके टोलेके नागरमल्ल नामा ढुंढक साधुकेपास साधुपणा लियाथा. परंतु शास्त्रोंके देखनेसें, और देशदेशावरोंमें फिरनेसें, ठिकाने ठिकाने श्रीजिनमंदिरोंको देखनेंसें, ढुंढकमत मन कल्पित मालुम होनेसें, देश गजरात शहर अहमदावादमें आके "गणि श्री मणिविजयजी” महाराजजीके पास अनुमान विक्रम संवत् १९११-१२में तपगच्छका वासक्षेप लेके,पूर्वोक्त महात्माको गुरु धारन करके, दंढकमतका त्याग करा. यद्यपि टंढकमतका श्रद्धान तो इन महात्माके मनसें विक्रम संवत् १८९३ में निकल गयाथा, परंतु पूर्वोक्त संवत तक यथार्थ गुरु नही धारण करनेसे ऐसा लिखा है. इन महात्माका विशेष वर्णन जिसको देखनेकी इच्छा होतो, इनकी बनाई “मुहपत्ती चर्चा” नाम पोथीसें देखलेवें. इन महात्माके पांच शिष्य प्रायः अधिक For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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