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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir त्रयस्त्रिंशास्तम्भः। तथाचार्या ॥ यत्संयमोपकाराय वर्त्तते प्रोक्तमेतदुपकरणम् ॥ धर्मस्य हि तत्साधनमतोन्यदधिकरणमाहार्हन् ॥ अर्थः-जो संयमके उपकारकेतांइ वर्ते, सो उपकरण कहा है. और सो उपकरण धर्मकाही साधन है, 'उपकारकं हि करणमुपकरणमिति वचनात् ' और इससे भिन्न सर्व अधिकरण* है, ऐसें अर्हन् भगवान् कहते हैं. दिगंबरः-प्रतिलेखन कमंडलु तो, संयम पालनेअर्थे भगवंतने कहे हैं; परंतु वन किसवास्ते ? श्वेतांबर:-वस्त्र भी भगवंतने संयम पालनेवास्तेही कथन करे हैं. क्योंकि, प्रायः अल्पसत्व होनेकरके, उघाडे अंगोपांगके देखनेसे उत्पन्न हुआ है, चित्तभेद (विकार ) जिनोंको, ऐसें पुरुषोंकरके स्त्रियां, अभिभवको प्राप्त होती हैं; जैसें उघाडी घोडीयां घोडायोंसें. इसवास्ते वस्त्र संयमके साधक है, परंतु बाधक नही है. तथा स्त्रियां अबला होती हैं, तिनोंका पुरुष बलात्कारसें भी उपभोग करते हैं, इसवास्ते तिनको वस्त्रविना संयमबाधाका संभव आता है. पुरुषोंको तैसें नहीं आता है, ऐसें कहो तो, सो ठीक है. परंतु, एतावता वस्त्रसें चारित्राभाव सिद्ध नहीं हुआ; किंतु आहारादिकीतरें, वस्त्र भी चारित्रके उपकारक हुए. दिगंबर:-जिन अल्पसत्ववाली स्त्रियोंको, प्राणीमात्र भी अभिभव कर सकते हैं तो, ऐसी स्त्रियां, महासत्ववानोंकरके साध्य जो मोक्षमार्ग, तिसको कैसें साध सकती हैं ? श्वेतांबर:-यह कहना अयुक्त है. क्योंकि, यहां मोक्षसाधनमें, जिसके शरीरका सामर्थ्य अधिक होवे, सोही जीव मोक्ष साधनेके योग्य * अधिक्रियते घाताय प्राणिनोस्मिन्नित्यधिकरणमिति ॥ For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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