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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५७० www.kobatirth.org तत्त्वनिर्णयप्रासाद Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दिगंबर:- हां. ऐसेंही करते हैं. श्वेतांवरः- शुभ प्रकृतियां भी, अस्मदादिकोंमें, मोहसहकृतही अपने कार्यको करती देखने में आती हैं. तब तो केवलीकी गतिस्थितिआदि शुभ प्रकृतियां भी, मोहसहकृतही होनी चाहिये. इसवास्ते पूर्वोक्त दोनों प्रकृतियोंको मोहापेक्ष होकर के कवलाहारका कारणपणा नही है, किंतु स्वतंत्र कोही कारणपणा है. सो कारण केवली में अविकल अर्थात् संपूर्ण विद्यमानही है, तिसवास्ते कवलाहारका कारण, केवलीकेसाथ विरोधी नही है. यदि कार्यका विरोध मानो तो जो कार्य केवलज्ञानके साथ विरोधी है सो कवलाहारका कार्य, केवलिमें मत उत्पन्न हो. परंतु अविकल कारणवाला उत्पद्यमान कवलाहार तो, अनिवार्य है; अर्थात् कवलाहारको कोइ निवारण नही कर सकता है. एक अन्य बात है कि, सो कौनसा कार्य है ? जो, केवलज्ञानकेसाथ विरोधी है. क्या रसनेंद्रिय उत्पन्न हुआ मतिज्ञान ? (१) ध्यान में विघ्न ? (२) परोपकार करने में अंतराय ? (३) विसूचिकादि व्याधि ? (२) ईर्यापथ ? (५) पुरीषादि जुगप्सितकर्म ? (६) धातुउपचयादिसें मैथुनेच्छा ? (७) निद्रा ? ( ८ ) आद्य पक्ष तो नही है. क्योंकि, रसनेंद्रिय केसाथ आहारका संबंध होनेमात्र सेंही जेकर मतिज्ञान उत्पन्न होता होवे तब तो, देवतायों के समूहने जो करी है, महासुगंधित फूलोंकी निरंतर वर्षा, तिनकी सुगंधी नासिकामें आनेसें घ्राणेंद्रियजन्य मतिज्ञान भी होना चाहिये ॥ १ ॥ दूसरा पक्ष भी नही है. क्योंकि, केवलीका ध्यान शाश्वत है; अन्यथा तो केवलीको चलते हुए भी, ध्यानका विघ्न होना चाहिये. चाहिये. ॥ २ ॥ तीसरा पक्ष भी नही है, क्योंकि, दिनकी तीसरी पौरुषी में एक मुहर्त्तमात्रही भगवंतके आहार करनेका काल है, बाकी शेषकाल परोपकारके वास्तेही है. ॥ ३ ॥ चौथा पक्ष भी नहीं है, जानकरके, हित मित आहार करनेसें ॥ ४ ॥ पांचमा भी नही. अन्यथा, गमनादि करनेसें भी ईर्यापथका प्रसंग होवेगा. ॥ ५ ॥ छडा भी नही. पुरीषादि करते हुए, केवलीको आपही जुगुप्सा होती है, For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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