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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रयत्रिंशस्तम्भः । ५४५ यह अर्थ मैने श्रीहरिभद्रसूरिकृत टीकासें लिखा है. ऐसाही अर्थ, मूलभाष्यकारने करा है. विशेषार्थ देखना होवे तो, श्रीजिनभवणिक्षमाश्रमणकृतशब्दांभोनिधिगंधहस्तिमहाभाष्य, और तिसकी वृत्तिसें देखना. तथा दिगंबरीय मूलसंघ नंद्याम्नाय सरस्वतिगच्छ बलात्कारगणकी पट्टावलीमें, और श्रीइंद्रनंदिसिद्धांतीकृत नीतिसारकाव्य में ऐसें लिखा है । यथा ॥ पूर्व श्रीमूलसंघस्तदनुसितपटः काष्टसंघस्ततोहि । तत्राभूद्दाविडाख्यः पुनरजनि ततो यापुलीसंघ एकः ॥ तस्मिन् श्रीमूलसंघे मुनिजनविमले सेननंदी च संघौ । स्यातां सिंहाख्यसंघोभवदुरुमहिमा देवसंघश्चतुर्थः ॥ १ ॥ भाषार्थः - पहिले श्रीमूलसंघविषे प्रथम दूसरा श्वेतपटीगच्छ हुआ । १ । तिसपीछे काष्टसंघ हुआ । २ । तिस पीछे द्राविडगच्छ हुआ । ३ । तिसके पीछे यापुलीयगच्छ हुआ ॥ ४ ॥ इन गच्छोंके कितनेक कालपीछे श्वेतांबरम हुआ । ५ । और यापनीय गच्छ । १ । केकिपिच्छ । २ । श्वेतवास । ३ । निःपिच्छ । ४ । द्राविड । ५ । येह पांच संघ जैनाभास कहे हैं. जैनसमान चिन्हभास दीखे हैं, सो इन पांचोंने अपनी अपनी बुद्धिके अनुसारें सिद्धांतोंका व्यभिचार कथन करा है. श्रीजिनेंद्र के मार्गको व्यभिचाररूप करा. यह कथन श्रीइंद्रनंदिसिद्धांतीकृत नीतिसार में है. तथाहि श्लोकाः ॥ कियत्यपि ततोतीते काले श्वेतांबरोभवत् १ ॥ द्राविडो २ यापनीयश्च ३ केकिसंघश्च नामतः ॥ १ ॥ केकिपिच्छः १ श्वेतवासाः २ द्राविडो ३ यापुलीयकः ४ ॥ निः पिच्छश्चेति ५ पंचैते जैनभासाः प्रकीर्त्तिताः ॥ २ ॥ स्वस्वमत्यानुसारेण सिद्धांतव्यभिचारिणं ॥ विरचय्य जिनेंद्रस्य मार्ग निर्भेदयंति ते ॥ ३ ॥ इन तीनों श्लोकोंका भावार्थ ऊपर लिख आए हैं. ६९ For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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