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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir त्रयस्त्रिंशस्तम्भः। ५४१ तरजुमा करते हैं, सो बड़ी भूल करते हैं; इसवास्ते उनको चाहिये कि टीकाके अनुसारही तरजुमा करें. अब यहां प्रसंगोपात हम बहुत नम्रतासें दिगंबर जैनमतके मानने वालोंसें विनती करते हैं कि, हे प्रियबांधवो ! तुम भी अपने मतके कदाग्रहको छोडके पक्षपातसे रहित होकर जरा विचार करो कि, जैनमतकी बडी भारी दो शाखायें हो रही है; श्वेतांबर १, दिगंबर २, इन दोनोंमेसें यथार्थ जैनमत कौनसा है ? दिगंबर:-यह जो श्वेतांबर मत है, सो तो विक्रम राजाके मरे पीछे एकसोछत्तीस (१३६) वर्षपीछे सौराष्ट्रदेशकी वल्लभीनगरीमें उत्पन्न हुआ है. ऐसा कथन हमारे देवसेनाचार्य दर्शनसार ग्रंथमें कर गए हैं. तथाहि ॥ छत्तीसे वरिससए, विकमरायस्स मरणपत्तस्स ॥ सोरटे वलहीए, सेवडसंघो समुप्पण्णो. ॥११॥ सिरिभद्दबाहुगणिणो, सीसो णामेण संतिआयरिओ ॥ तस्स य सीसो दुट्ठो, जिणचंदो मंदचारित्तो.॥ १२॥ तेण कियं मदमेदं इत्थीणं अस्थि तप्भवे मोरको॥ केवलाणाणीण पुणो, अठक्खाणं तहा रोओ. ॥ १३ ॥ अंबरसहिओवि जइ, सिज्झइ वीरस्स गप्भचारित्तं ॥ परलिंगेवि य मुत्ती, पासुयभोजं च सव्वत्थ ॥ १४॥ अण्णं च एवमाई, आगमउठाइ मिच्छसत्थाई॥ विरइत्ता अप्पाणं, पडिठवियं पढमए णिरए. ॥ १५॥ भाषार्थः-विक्रमराजाके मरण प्राप्त हुएपीछे १३६ वर्षे सोरठदेशमें वल्लभीनगरीमें श्वेतपट श्वेतांबरसंघ उत्पन्न हुआ, श्रीभद्रबाहुगणिका शांतिसूरिनामा शिष्य हुआ, तिसका मंदचारित्रवाला जिनचंद्रनामा दुष्ट शिष्य हुआ, तिसने यह मत उत्पन्न किया. स्त्रीको तिसही भवमें मोक्षप्राप्ति १, केवलज्ञानिको आहार तथा रोग २, वस्त्रसहित ऐसा भी यति For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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