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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥ अथसप्तविंशस्तम्भारम्भः॥ SE ॐ अहं अथ व्रतारोपसंस्कारविधि लिखते हैं. । इहां जैनमतमें गर्भाधानसे लेके विवाहपर्यंत चतुर्दश १४ संस्कारोंकरके संस्कृत भी पुरुष, व्रतारोपसंस्कारविना इस जन्ममें श्लाघा श्रेयः लक्ष्मीका पात्र नहीं होता है. और परलोकमें आर्यदेशादिभावपवित्रित मनुष्यजन्म स्वर्गजोक्षादिका भाजन नही होता है. इसवास्ते व्रतारोपही, मनुष्योंको परमसंस्कार है. यत उक्तमागमे । " बंभणो खत्तिओ वावि वेसो सुद्दो तहेवय ॥ पयई वावि धम्मेण जुत्तो मुक्खस्स भायणं ॥१॥" अर्थः-ब्राह्मण, वा क्षत्रिय, वा वैश्य, वा शूद्र, धर्मसे युक्त हुआ, मोक्षका भाजन होता है. ॥१॥ अपिच गाथा.॥ " बाहत्तरिकलकुसला विवेयस हिया न ते नरा कुसला ॥ सवकलाण य पवरं जेधम्मकलं न याणंति ॥ १॥" अर्थः--बहत्तर कलाकुशल भी, विवेकसहित भी होवे, तो भी ते नर कुशल नहीं हैं; जे, सर्वकलायोंमें प्रधान जो धर्मकला तिसको नही जाणते हैं. ॥ १ ॥ परमतमें भी कहा है । ' उपनीतोपि पूज्योपि कलावानपि मानवः । न परत्रेह सौख्यानि प्राप्नोति च कदाचन ॥ १ ॥' इसवास्ते सर्वसंस्कार प्रधानभूत ब्रतसंस्कार कहते हैं । तिसका विधि यह है. पीछले विवाहपर्यंत संस्कार गृह्यगुरु जैन ब्राह्मणने वा क्षुल्लकने करवावने. परंतु व्रतारोपसंस्कार तो, निग्रंथ यतिनेही करावना. प्रथम गुरुकी गवेषणा करणी. For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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