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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३६० तत्त्वनिर्णयप्रासादअर्थात् उपयोगसें स्वउपवीत, और अंतरीयको धारण करना। लिंगियोंको, अन्य ब्राह्मणोंको, और अन्यदेवालयोंमें भी, प्रणाम दान पूजादि काम पडे तो, लोकव्यवहारसें करने । संसारिक सर्व कर्म जैनब्राह्मणों और धर्म कर्म निग्रंथों करके करवावे. दृढसम्यक्त्वकी वासनावाला होवे । शत्रुयोंकरके समाकीर्ण रणमें हृदयके विषे वीररस धारण करना, युद्धमें मृत्युका भय सर्वथा नहीं करना । गौ ब्राह्मणके अर्थे, देवके अर्थे, गुरु और मित्रके अर्थे, स्वदेशके भंग होते, और युद्धमें, मृत्यु भी सहन करना योग्य है। ब्राह्मण और क्षत्रियकी क्रियामें कुछ भी भेद नहीं है, परं अन्यको व्रतअनुज्ञा देनी, विद्यावृत्ति प्रतिग्रह (स्वीकार-दान) इनको वर्जके दुष्टोंका निग्रह करना योग्य है, भूमि और प्रतापका लोभ करना, ब्राह्मणसें व्यतिरिक्त क्षत्रिय दान आचरण करे ॥ ११ ॥ इति क्षत्रियव्रतादेशः॥ अथ वैश्यव्रतादेशः॥ ॥मलम्म् ॥ त्रिकालमहत्पूजा च सप्तवलं जिनस्तवः ॥ परमेष्टिस्मृतिश्चैव निर्यथगुरुसेवनम् ॥ १॥ आवश्यकं द्विकालं च द्वादशव्रतपालनम् ॥ तपोविधिर्गृहस्था) धर्मश्रवणमुत्तमम् ॥२॥ परनिंदावर्जनं च सर्वत्राप्युचितक्रमः ॥ वाणिज्यपाशुपाल्याभ्यां कर्षणेनोपजीवनम् ॥३॥ सम्यक्त्वस्यापरित्यागः प्राणनाशेपि सर्वथा ॥ दानं मुनिभ्य आहारपात्राच्छादनसद्मनाम् ॥ ४॥ कादानविनिर्मुक्तं वाणिज्यं सर्वमुत्तमम् ॥ उपनीतेन वैश्येन कर्त्तव्यमिति यत्नतः ॥ ५॥ ॥ इतिवैश्यव्रतादेशः॥ For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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